Tuesday 30 December 2014

फिर भी बने रहना तुम ..

एक साल और बीता
अच्छा या बुरा
मालूम नहीं यह मुझे

बस बीता दिया
या बीत गया ,
जैसे मेरी उमर !
 एक बरस
हो गया हो कम ....

गर्मी इस साल भी रही ,
हाँ ! कीर्तिमान नहीं टूटे
कई बरसों की तरह ,
नए आयाम  के साथ कायम रही
तुम्हारी बेरुखी की तरह।

बारिश भी कहाँ थी !
हुई भी तो
बिन मौसम !
बारिश का बहाना नहीं मिला
मुझे।
इस बार भी तकिये ने ही
आँसू झेले ....

और अब सर्दी !
यह भी नए आयाम
स्थापित किये जा रही है।
बर्फ जमाए जा रही है
हड्डियों में
और रिश्ते में तुम्हारे और मेरे।

फिर भी
बने रहना तुम
मौसम की तरह हर बरस
जैसे भी हो
जाने -अनजाने या थोड़े से पहचाने।

 हाँ ! तुम
गर्मी में कभी  सुकून भरा
झोंका बन जाना ,
सर्दी में गर्म लिहाफ़
ओढ़ा जाना।
बारिश में रुलाना मत !
मुझे तुम्हारा इंतज़ार रहेगा
 हर बरस की तरह !











Sunday 28 December 2014

हायकू ( गांव )

गांव की बाला
नहीं है  मज़बूर
थामे पुस्तक

नया ज़माना
नयी है तकनीक
खुश किसान


Wednesday 24 December 2014

हायकू ( पंछी )


चाँद से प्रीत
रहे मन मसोस
पंछी बाँवरा

दूर गगन
खग न जाने मग
भटके राह

बंद पिंजरा
उड़ने की चाहत
चुप है पक्षी


जीने की चाह
जर्जर है पखेरू
जरा अवस्था


Tuesday 23 December 2014

एक पाती जाने पहचाने अनजाने के नाम


एक बात जो
तुमसे कही मैंने ,
बन कर अपनी सी।
वह बात तो तुमने भी
सुनी होगी।

या
अनसुनी कर दी…
कभी कुछ
पलट कर जवाब भी नहीं दिया।

बने रहे
बेगाने से , अनजाने से
फिर मैं क्यों कहूँ
तुम जाने -पहचाने हो !

कोई तो परिचय ,
पहचान तुम्हारा भी तो होगा
कि
तुम्हें अपना सा कह सकूँ !






Monday 22 December 2014

हायकू ..( पन्ने )

यादों से घिरे
पन्ने फड़फड़ाये
मन उदास


कोरे  कागज़
पर लिखी किस्मत
बांच ना पाऊँ


पृष्ठ पलटे
पुरानी डायरी के
मन मुस्काये



Wednesday 17 December 2014

जो बद् दुआ बन कर उमड़ रही है दुनिया की हर मां के हृदय से ....

चुप है एक माँ,
क्या कह कर मन को मनाए,
क्या समझाए किसी को ।

रोती हुई माओं के
साथ ही रो पड़ती है
 वह स्वयं....

प्रार्थना ,
सांत्वना
सभी शब्द छोटे और झूठे
नज़र आते हैं।

कब सोचा था किसी ने भी
विदा के लहराते हाथ
किताबें थामें हाथ ,
अंतिम विदाई लिए
खुद किताबों में लिखा इतिहास बना
दिये जाएंगे ।

जो दौड़ आते थे
माँ की एक पुकार पर
अब नहीं सुनाई  देती उनको
कोई भी आवाज़...

माँ किसी को बद् दुआ
कहाँ देती है !
लेकिन,
उसका तड़पता हृदय
दुआ भी तो नहीं देता ।

 वहशी दरिंदों को क्या
अपनी माँ का भी
ख्याल ना आया !
क्या उन्हें दूध का कर्ज
यूं किसी माँ की गोद
उजाड़ कर ही चुकाना था !

सुना है
माँ की  दुआ अमृत की
तो
बददुआ तेज़ाब की बरसात करती है ।

अब इंतज़ार है तो बस
उन वहशी दरिंदों पर
तेज़ाबी बरसातों के बरसने की,
जो  बद् दुआ बन कर उमड़ रही है
दुनिया की हर मां के हृदय से ।

Monday 15 December 2014

चाँद का ग्रहण से गहरा नाता है....!

तस्वीर में चाँद था
या चाँद की तस्वीर थी 
क्या फर्क पड़ता है।

चाँद तो बस चाँद है
सुंदर सा
मन को हरने वाला
मनोहर.....!

तस्वीर का चाँद
मुस्कुराता दिखा
मनोहर मुस्कान के साथ।

मुस्कान जो दिखाई दी
क्या वह दिल से जुड़ी भी थी
या यूँ ही
तस्वीर की सुंदरता बढाने के लिए थी !

क्योंकि
आँखों में अब भी
उदासियां नज़र आती है
चाँद का ग्रहण से गहरा नाता है....!

शायद...!

Tuesday 9 December 2014

बदला फिर क्या था ...!

सभी कुछ
वैसे ही था
जैसे बरसों पहले हुआ करता था ।
गाँव , खेत , जोहड़
वही गलियां...
गलियों में से गुजरता
बचपन भी वही था ।
खेतों की ओर
जाने वाली हवाएँ,
खेतों की तरफ
अब भी बहा ले
जाना चाह रही थी ।
और जोहड़ !
जोहड़ में तैरती भैंसो ने
अब तक
अपनी आदते नहीं बदली...
ऩा जाने
आपस में बतियाती है
या
खो जाने के भय से
अपनी गरदन रखे रहती है
एक दूसरी की पीठ पर....।
किनारे पर
कदम ताल करती
बतखों के कदम
अब भी सधे थे....
बदला फिर क्या था ...!
गाँव की हवा...
या
गाँव के लोगों के मिज़ाज...
सच्ची मुस्कुराहटें
कहीं दूर चली गई हो...
हर कोई
नकाब ओढे हुए ,
मुखोटों के पीछे से झांकता मिला...
वो बच्चे भी नज़र नहीं आए ,
जो जोहड़ किनारे
टूटी मटकी के टुकड़ों को
पानी पर तैरा दिया करते थे....
नज़र आए भी तो
किताबों के ढेर के नीचे दबे
या
मोबाइल फोन के
अंदर झांकते हुए...
शहरी जहरीली हवाएँ
असर कर रही है
गाँव के लोगों की
रीढ़ की हड्डी पर....
तभी तो ,
मैंने बिना रीढ़ के
लोगों को जन्मते देखा
मेरे बचपन के गाँव में...

Monday 24 November 2014

खुशियों की चादर कितनी छोटी है....

उदासियों की चादर
बहुत बड़ी है
बहुत मोटी ,
खद्दर जैसी है।
या
खुरदरी सी
जैसे जूट हो।

कहीं  कोई छेद नहीं ,
झिर्री भी तो नहीं है।

कि कहीं से
उधेड़ देने की कोशिश तो की जाय।

कहीं कोई गरमाइश भी नहीं
कि
ओढ़ कर सुकून सा मिले।

उदासियों की चादर के आगे
खुशियों की चादर
कितनी छोटी है।

उधड़ी हुई सी ,
जगह-जगह झिर्रियां सी है।
छोटे -बड़े कई छेद हैं
उन पर भी पैबंद लगा है।

फिर भी
इस झिर्रीदार ,
पैबन्दों  से बिंधी
छोटी ही सही ,
खुशियों की चादर
कितना गरमाइश भरा सुकून है। 








Tuesday 11 November 2014

मिट्टी की मूरतों में प्राण ही नहीं...

पत्थरों के शहर में
मिट्टी की मूरतें है।
अग्नि सी आंधियां
तेज़ाबी बरसातें है।

ना जाने क्यों
न पत्थर पिघलते हैं
और
न ही मिट्टी की मूरतें
भुरभुराती है।

पत्थरों को पिघलने की
चाहत ही ना रही ...
बसंत का इंतज़ार ही नहीं उसे,
तभी तो शायद
मिट्टी की मूरतों में प्राण ही नहीं
या जीने की ही चाह ना रही ।

Monday 10 November 2014

अस्थियों के विसर्जन के मायने ही कहाँ रहे....

अस्थियों के
विसर्जन के साथ ही
कर दिया तर्पण
सम्बन्धों का भी....
बह गए सभी
रिश्ते ,
खत्म हुए सभी नाते....
तन के रिश्ते तन
तक ही थे शायद.
फिर
मन के विलाप का क्या
कुछ दिनों का रोना है....
मन से जुड़े रिश्तों का ,
तन से जुड़ी यादों का नाता
अस्थि यों के होने तक ही था क्या....
अस्थियां जब तक
अस्थि मज्जा से जुड़ी थी,
मजबूत ढाँचे में कसी थी
क्या तभी तक रिश्ते रहे ....
नहीं !
मन के रिश्ते ,
मन से ही जुड़े रहेे ।
फिर
अस्थियों के विसर्जन के
मायने ही कहाँ रहे....

Thursday 6 November 2014

औरत सदा अकेली ही रहती है ..

औरत सदा
अकेली ही रहती है
कौन साथ देता है उसका !
कोई भी नहीं।

अपनी मंज़िल के लिए 
बढाती है वह खुद 
अपना पहला कदम ,
सहारा बनने के लिए 
कौन साथ देता है उसका !
कोई भी नहीं।

अपना पथ
स्वयं ही बुहारती -सवांरती ,
 पथ के कांटे भी 
खुद ही निकालती है। 

लेकिन 
जाने -अनजाने में 
अपने पीछे ही फैंक देती है वह ,
वे पथ के कांटे। 
उसे चुभन का 
अहसास ही नहीं हुआ  
कभी शायद। 

तभी तो 
उसके बाद 
आने वाली औरतों को 
विरासत में 
कांटे ही मिलते है बुहारने को। 

एक औरत ,
दूसरी औरत को
 फिर से अकेला छोड़ देती है ,


अपनी  राह खुद ही चलने को। 

Friday 31 October 2014

तांका लिखने का प्रथम प्रयास


1)
 रूप सुहाना 
मधुर है मुस्कान 
प्यारी बिटिया 
आँगन की रौनक 
कलेजे की ठंडक

2)
    सर्द मौसम
या सर्द होते रिश्ते
जमता लहू
अलाव तो जलाओ
प्रेम व विश्वास का

Tuesday 28 October 2014

कुछ शब्द....

कुछ शब्द
जो मात्र  वाक्य ही होते हैं
वे कभी कभी
किसी के हृदय पर
इबारत बन कर
आयत या श्लोक से
लिख लिए जाते हैं ।

वे आयतें या श्लोक
हृदय को
कभी सुकुन देती ,
अहसास  अपने पन का
जता जाती है
कभी बेगाना पन सा अहसास जता
उदास भी करती है....

Sunday 19 October 2014

सूरज की बिंदी से शुरू चाँद की बिंदी पर खत्म


भोर से साँझ
सूरज की सिंदूरी - सुनहरी बिंदी से शुरू
चाँद की रुपहली बिंदी पर खत्म
एक औरत का जीवन।

सूरज की बिंदी देखने की
फ़ुरसत ही कहाँ !
सरहाने पर या माथे पर
खुद की बिंदी और खुद को भी संभालती
चल पड़ती है दिन भर की खट राग की लय  पर।

दिन भर की खट राग  पर
पैरों को पर बना कर दौड़ती
कभी मुख पर चुहाते पसीने को पोंछती
आँचल को मुख पर फिराती ,
सरक जाती है जब बिंदी माथे से
जैसे सूरज पश्चिमांचल को चल पड़ा
या मन ही कहीं  बहक पड़ा हो ,
थाली में देख कर ही
अपनी जगह कर दी जाती है बिंदी।

सारे  दिन की थकन
या ढलते सिंदूरी सूरज की लाली ,
चेहरे के रंग में रंग जाती है बिंदी।

सिंदूरी रंग से रंगी बिंदी
चाँद की बिंदी से झिलमिला जाती है
मन का कोना तो
तब भी अँधियारा सा ही रहता है।


अपने माथे की बिंदी सहेजती ,
अगले दिन के सपने बुनती
चाँद की बिंदी को
उनींदी अँखियों से देखती
जीवन राग में कहीं खो जाती ,
बिंदी से शुरू बिंदी पर ख़त्म
जीवन बस यूँ ही बीत जाता।















Monday 29 September 2014

दस्तक अब भी दी जा रही है..

बंद दरवाजे पर
दस्तक दी जाती रही
 दरवाजा नहीं खुला ।

मगर
दरवाजे के उस पार
आवाज़ें थी , हलचल थी
फिर  दरवाजा क्यों नहीं खुला !

 दरवाजे खुलने की कुछ शर्त थी शायद
 जब दोनों तरफ कुन्डी लगी थी
मजबूत ताले थे
तो  दस्तक का औचित्य ही क्या था !

क्या यह मात्र औपचारिकता थी
या सुलह की पहल
 मालूम नहीं !

दस्तक अब भी दी जा रही है
कुन्डीयों , तालों के टूटने का इंतज़ार है ...

यह कैसा लेख था ...

उस रात चाँद  चुप सा था
सितारे भी थे खामोश से
हवा भी दम साधे हुए थी ।

सन्नाटे में
कोई तो था
जो चुपके से आया

मन के
कोरे कागज़ पर
बिन  कलम , बिना सियाही
लिख  गया था
कुछ लेख ।

लेकिन
 यह कैसा लेख था
जो लिखा तो है
पढ़ा क्यों नहीं जाता

शायद यह किस्मत का लिखा
कोई लेख ही है ।

जो मन के कागज़ पर
ही लिखा  जाता है
माथे की लकीरों पर नहीं ।


Wednesday 24 September 2014

गीत जो तुम मेरे लिए गुनगुनाते हो ....

गीत जो तुम ,
मेरे लिए
गुनगुनाते हो
हवाएं मुझ तक
पहुंचा देती है ......

 कुछ गीतों को
 सितारों में
टांक दिए हैं मैंने ,
कोई
टूटता सितारा
तुम्हारा गाया गीत
गुनगुना जाता है .....

कुछ गीतों को मैंने
कशीदाकारी से
फूल बना कर
आंचल पर सजा लिए ,
हर गीत फूल की
तरह
तुम्हारी याद को
महका जाता है ........

कुछ गीत बिखेर दिए
यूँ ही हवाओं में ,
लिपटी रहती हूँ तुम्हारे
अहसासों में ,
कभी कोई गीत  छू जाता है
मेरा अंतर्मन
तुम्हारी याद में
मैं भी गुनगुना उठती हूँ ...





Tuesday 23 September 2014

काश कोई ऐसा संत सच में हो...

सुबह का समय
इंतजा़र एक सीटी की
कर्कश आवाज़ का...

सुन कर लोग
निकल आते हैं घरों से
जैसे
दवा डाल देने पर
कॉक्रोच।

हाथों में
अपने ही घर का कूड़ा लिए
और नाक ढके या
सांस रोके....

कूड़े वाला
चुप ,निर्विकार संत सा
सबका कूड़ा
इकट्ठा ,
एकसार करता
आगे बढ़ जाता ..

सोचती हूँ
काश कोई ऐसा संत
सच में हो
जो मानव हृदय के
कूड़े को कहीं दूर ले जाकर
फैंक दे ।

Thursday 18 September 2014

रहने दो बेजुबान मेरे शब्दों को....

शब्द बिखरे पड़े हैं 
इर्द -गिर्द 
मेरे और तुम्हारे।
चुप तुम हो,
चुप मैं भी तो हूँ..


कुछ शब्द 
चुन लिए हैं
मैंने तुम्हारे लिए
लेकिन
बंद है मुट्ठी मेरी ,
मेरी जुबान की तरह ।

रहने दो बेजुबान 
मेरे शब्दों को
जब तक कि
तुम चुन ना लो 
कुछ शब्द मेरे लिए ...

Sunday 24 August 2014

तुम्हारा एक नाम रखूं ?

तुम्हारा
 एक नाम रखूं ?
क्या नाम रखूं
 तुम्हारा !
प्रेम !
नहीं तुम्हारा नाम प्रेम नहीं !
वो प्रेम ही क्या
जो छुपाया जाये।

नफरत !
नहीं नफरत भी नहीं !
मेरे शब्दकोष में
यह शब्द ही नहीं है।

इंतज़ार !
नहीं इंतज़ार भी नहीं !
साथ रहने वालों का
कैसा इंतज़ार।

धोखा !
हाँ तुम धोखा ही हो ,
छलिया हो ,
भ्रम ही तो हो
यही नाम रखूंगी तुम्हारा।

जिक्र होगा जब कभी
धोखे का
तुम्हारा ही नाम आएगा
भ्रम में रहेगा सारा संसार
और हर बार छला जायेगा। 

Saturday 16 August 2014

मेरे पास अभी भी......

तुम्हारे प्यार को मैंने
 पिंजरे में बंद कर
पाला चिड़िया की तरह
बरसों तक आशा के दाने ,
भ्रम का पानी पिलाती रही
कि तुम कभी तो आओगे ...

 यूँ ही तुम्हारे अहसाह को
अपने आस-पास रेशमी तारों
का जाल सा बुनती रही ...

 कर दिया मुक्त
लो आज मैंने आज
इस चिड़िया को
उड़ा दिया दूर गगन में....

लेकिन
मैंने  परों में थोड़े से रेशमी
तार भी उलझा दिए है ,
क्यूँ कि
मेरे पास अभी भी कुछ आशा के
दाने और भ्रम का पानी बचा है .

Wednesday 23 July 2014

शीशे पर निशान उभरे हैं या मेरे हृदय पर

हर रोज़
एक नन्हीं  सी चिड़िया
मेरी खिड़की के शीशे से
अपनी चोंच टकराती है ,
खट-खट की
खटखटाहट से चौंक जाती हूँ मैं ,

मानो कमरे के भीतर
आने का रास्ता ढूंढ  रही हो ,
उसकी रोज़ -रोज़ की
खट -खट से सोच में पड़ जाती हूँ  मैं ,

 वह क्यों चाहती है
भीतर आना
अपने आज़ाद परों से परवाज़
क्यों नहीं भरती
क्या उसे आज़ादी पसंद नहीं !

कोई भी तो नहीं उसका यहाँ
बेगाने लोग , बेगाने चेहरे
क्या मालूम
कहीं कोई बहेलिया ही हो भीतर !
जाल में फ़ांस ले ,
पर कतर दे !

वह हर रोज़ आकर
शीशे को खटखटाती है या
मोह-माया के द्वार को खटखटाती है
उसे नहीं मालूम !

मालूम तो मुझे भी नहीं कि
चोंच की खट -खट से
शीशे पर  निशान उभरे हैं
या मेरे हृदय पर
मैं नहीं चाहती उसका भीतर आना
पर चिड़िया की खटखटाहट और
मेरे हृदय की छटपटाहट अभी भी जारी है !




Monday 7 July 2014

तुमको देखा तो ये ख़याल आया ...

 बरसों बाद 
तुमको देखा तो ये 
ख़याल आया ...

 'कि  जिन्दगी धूप
तुम घना साया !'

नहीं ऐसा तो नहीं सोचा मैंने !
जिंदगी  में ,
 विटामिन- डी के लिए
धूप की भी तो जरुरत 
होती है

तुम को देखा तो 
मुझे ख्याल आया 
उन खतों का
जो तुमने 
 लिखे थे कभी मुझे ...

वे खत
 मैंने अपनी यादों में
और खज़ाने की तरह 
एक संदुकची में संभाल कर 
रखे है
देख कर उनको 
तुम्हें भी याद कर लिया करती हूँ

तुमको देखा तो
अब फिर से ख्याल आया 
जो मैंने तुम्हें ख़त लिखे थे 
वे  मुझे वापस लौटा दो ...

देखो गलत ना समझो मुझे 
वे  अब तुम्हारे भी किस
 काम के है
समझने की कोशिश तो 
करो जरा मुझे ...!!

अरे !!
महंगे होते जा रहे है 
गैस -सिलेंडर। 
अब  चूल्हा जलाने के काम 
 आयेंगे ना 


तुम्हारे और मेरे ख़त ...!!!

Sunday 29 June 2014

चेहरे पर वक्त की खरोंच लिए

कोई अब भी
 फिक्रमंद चेहरा
ग़मज़दा सा ,
एक दहशत
दिल में लिए घूमता है।

अभी भी तलाश है उसे अपनों की
पहाड़ पर खड़ा है वह ,
आस ले कर
पहाड़ से भी ऊँची।

है असमंजस  में वह ,
व्याकुल -व्यथित सा ,
किससे मांगे
और
क्या मांगे जवाब ,
जब चोट दी हो
मरहम लगाने वाले ने ही।

ढूंढता है पत्थरों में निशानियाँ
पूछता है पत्थर बने
ईश्वर को
चेहरे  पर वक्त की खरोंच लिए।



Monday 16 June 2014

मुस्कुराहटें छुपा देती है दिलों के राज़

मुस्कुराइए !
कि मुस्कुराहटें
छुपा देती है दिलों के राज़।

बन सकते हैं अफ़साने
जिन बातों से
मुस्कुराहटें रोक देती हैं ,
लबों पर आती बात।

बिन कही बातें
कह जाती है
तो
कभी -कभी
बेबसी छुपा भी जाती है
ये मुस्कुराहटें।

देखिये बस
मुस्कुराते लबों को ही,

न झाँकिये आँखों में कभी
ये आँखे इन मुस्कुराहटों
राज़ भी खोल देती है
बस मुस्कुराइए और मुस्कुराते रहिये।



तेरी याद है मय की मानिंद...

जिंदगी जैसे
बियाबान जंगल सी ,
भटकती अंधेरों की
अनजान राहों में
 तलाशती  पगडंडियां।

जिंदगी जैसे
रेत के सहरा सी ,
तपते -दहकते रेत  के शोलों पर
तलाशती एक बूंद पानी।

बस एक  तेरा नाम
तेरी याद  है
मय की मानिंद।

डूबी है जिंदगी
तेरी याद के सुरूर में
मिलती  जाती है
मंज़िल खुद -ब -खुद ही।

Sunday 8 June 2014

तू ख़ुश रहे सदा ..



दुआ दिल से दी
लब  ख़ामोश रहे तो क्या।

आँखे बंद किये
दीदार कर लिया
जिस्म दूर रहे तो क्या।

ख़ुशी में हो या हो ग़म
याद आते हैं
दूर जाने वाले
दिल ही दिल में महसूस कर लिया
छू ना पाये तो क्या।

महफ़िल में मुस्कुराये
छुप कर आंसूं बहाये तो क्या।

ओ  बेख़बर
तू ख़ुश रहे सदा
हम इस जहां से चले जाये तो क्या। 

Saturday 31 May 2014

मैं उदास हूँ..

पानी में पानी का रंग
तलाशना
जता देना है कि
मैं उदास हूँ।

ख़ुशी में ग़म
तलाशना
जता देना है कि
मैं उदास हूँ।

ऊँची पहाड़ियों पर
घाटियों को निहारना
जता देना है कि
मैं उदास हूँ।

इन्द्रधनुष के रंगों पर
काली लकीर खींचना
जता देना है कि
मौन उदास हूँ।

कहते हुए शब्दों पर
लगा कर पूर्णविराम।
चुप हो जाना
जता देना है कि
मैं उदास हूँ।







Wednesday 28 May 2014

यह जीवन हर दिन आस भरा

यह जीवन
हर दिन आस भरा
उम्मीद भरा
भोर से साँझ तक।

हर रोज़ एक आस
उदित होती है
सूर्य के उदय के
साथ - साथ।

छाया सी डोलती
कभी आगे चलती है
कभी लगता है
दम तोड़ देगी
क़दमों तले
भरी दोपहर में।

नज़र आती है
हथेलियाँ खाली सी
लेकिन
दिन ढले
चुपके से दबे पाँव
पीछे से आ
कन्धों पर हाथ रख देती है।


 रात्रि के  घोर अँधेरे में  ,
निद्रा में भी
आस
पलती है स्वप्न सी।

आस -उम्मीद से
भरा जीवन ही
देता है जीने की प्रेरणा।




Tuesday 13 May 2014

हैरान हूँ फ़िर भी मैं !

कल रात बहुत बारिश हुई
गीला   सा  मौसम
चहुँ ओर गीला -गीला सा आलम।

भिगोया तन
बरसती बारिश ने
भिगो ना सकी लेकिन
मन को और
मन में फैले रेगिस्तान को।

फैली हथेलियाँ
बारिश को समेटने को आतुर थी
लेनी थी महक सोंधी -सोंधी सी।

मन को ना छू सकी
गिर गई छू कर हथेलियाँ को ही ,
वह महक ना जाने क्या हुई !

बाहर बारिश थी ,
 अंतर्मन में  थे
तपते रेगिस्तान की
आँधियों के उठते बवंडर
तो वे  बूंदे मन को छूती ही  क्यूँ !

हैरान हूँ फ़िर भी मैं !
बारिश ने मन को ना भिगोया
फिर मेरे नयनों में
आंसुओ का  साग़र कहाँ से उमड़ा।





Tuesday 6 May 2014

एक छवि है उसकी भी ...

कोई है
 जो बेनाम है
बनता अनजान है।

क्या जाने
वो रूठा या माना हुआ ,
गुमशुदा है
या आस-पास ही रहता है !

 सोचता है
अदृश्य है वह
मुझसे !
क्यूंकि निराकार है वह।

हां शायद
वह निराकार ही है !
लेकिन
अनजान है वह।

एक छवि है
उसकी भी
एक जानी  पहचानी सी
जो मेरे अंतर्मन में  साकार है।




ਓਸ ਦਿਸ਼ਾ ਵੱਲ ਵੇਖੀਏ ਵੀ ਕਿਉਂ..

ਮੇਰਾ ਮਨ ਸ਼ਾੰਤ
ਜਿਵੇਂ
ਸ਼ਾੰਤ ਸਮੁੰਦਰ ਦੀਅਾਂ ਲਹਿਰਾਂ
ਨਾ ਕੋਈ ਆਸ
ਨਾ ਹੀ ਕੋਈ ਉੱਮੀਦ ...
ਓਸ ਦਿਸ਼ਾ ਵੱਲ
ਵੇਖੀਏ ਵੀ ਕਿਉਂ
ਜਿਥੇ  ਜਾਣਾ ਹੀ ਨਹੀ ...
ਨਾ ਤੇਰੇ ਨਾਲ ਕੋਈ ਵਾਅਦਾ ਸੀ
ਮੇਰਾ
ਨਾ ਤੂੰ ਕੋਈ ਸਹੁੰ ਖਾਧੀ ਸੀ
ਮੇਰੇ ਨਾਲ ...
ਫਿਰ ਕਾਹਦਾ ਇੰਤਜ਼ਾਰ
ਕਿਹੜੀ ਉਮੀਦ ਕਿ
ਹਾਲੇ ਵੀ ਤੂੰ ਆਵੇਂਗਾ ,
ਮੈੰਨੂ ਇਕ ਵਾਰ
ਹਾਂ
ਇਕ ਵਾਰ ਤਾਂ ਮੈਨੂੰ ,
ਤੂੰ ਮੇਰੇ ਨਾਮ ਲੈ ਪੁਕਾਰੇਂਗਾ ...

ਇਹੋ ਹੀ ਇੱਕ
ਆਸ
ਮੇਰੇ ਮਨ ਦੇ ਸ਼ਾੰਤ ਸਮੰਦਰ ਚ
ਲਹਿਰਾਂ ਜਗਾ ਦਿੰਦੀ ਹੈ ...

…………………………………………। ( हिंदी अनुवाद )




Friday 2 May 2014

पत्थर के शरीर में क्या आत्मा भी पत्थर की ही ....

कभी बुत देखा है क्या ...
चुप -खामोश
रुका -ठहरा सा
चुप सा दिखता है।
न जाने क्या सोचता रहता है

पत्थर का शरीर है
तो क्या
 मन भी पत्थर का ही होगा !

पत्थर के शरीर में
क्या आत्मा भी
पत्थर की ही निवास करती है !

धूप -बारिश
ठण्ड-कोहरे  का कोई तो
असर होता होगा।

सुबह के सुहाने मौसम का
चिड़ियों के कलरव से
 उसका मन भी  पुलकित होता होगा।

बहार के सुहाने मौसम में
सावन की फुहारों से
उसका मन भी तो भीग जाता होगा।

देखिये कभी गौर से
बुतों की पथराई नज़रे और होठ
कुछ न कुछ कहते
सुनाई जरुर देंगे
आखिर वे भी तो कभी इंसान रहे होंगे।




Wednesday 30 April 2014

नन्हा..

मैं छोटा सा ,नन्हा सा
और माँ कहती है
प्यारा सा
  बच्चा हूँ

प्यारा सा बच्चा हूँ !
फिर भी
माँ स्कूल के
लिए जल्दी
जगा कर तैयार
करती !

पता नहीं ये स्कूल
किसने बनाया होगा
मुझे तो कुछ भी
समझ आता
उससे पहले ही
टीचर जी लिखा
मिटा देती है 

अब लिखा नहीं तो
कान भी मरोड़
देती है 
 लाल - लाल
कान लेकर घर
जाता हूँ तो
माँ आंसू भर के
गले लगा कर डांटती
है तो मुझे
अच्छा लगता है क्या !

जब मैंने माँ को बताया ,
आज नालायक बच्चों
को एक तरफ बिठाया
उनमें से मैं भी एक था ..

पूछ बैठा कि माँ
यह नालायक क्या होता है !
तो बस, माँ रो ही पड़ी ,
गले से लगा कर बोली
तुझे कहने वाले ही है रे
मेरे लाल !

मैं अब भी नहीं समझा 
टीचर जी ने ऐसा क्यूँ कहा.. 

Saturday 19 April 2014

तुम अब कहीं नहीं

तुमने पूछा
तुम कहाँ हो !
तुम अब कहीं नहीं। 

तुम्हें भूले हुए
एक अर्सा हुआ
अब कोई याद बाकी नहीं। 

तुम्हें तो मैंने 
उसी वर्ष भुला दिया था 
जिसमे तेरहवां महीना था। 

जब फरवरी में 
तीसवीं तारीख आई थी। 

जिस वर्ष 
तीन सौ पैंसठ की बजाय 
तीन सौ सड़सठ दिन थे। 

फिर भी पूछते हो कि 
तुम कहाँ हो ?

Sunday 30 March 2014

माँ न जाने कैसे भांप लेती है ..


माँ
ना मालूम कैसे,
सब जान जाती है
पेट की जाई का दर्द।

कोने -कोने में
तलाशती है वह
बेटी की खुशियां
बेटी के घर आकर

दीवार पर टंगी
सुन्दर तस्वीरों के पीछे
छुपाई गई
दीवार की  बदसूरत
उखड़ी हुई पपड़ियां
माँ न जाने  कैसे भांप लेती है

बेल -बूटे  कढ़ी हुई
चादर के नीचे
उखड़ी -बिखरी सलवटें
माँ न जाने  कैसे भांप लेती है

हंसती आँखों से
सिसकता दर्द !
मुस्कराते होठों से
ख़ामोश रुदन !
माँ न जाने  कैसे भांप लेती है









Friday 21 March 2014

परिधि प्यार की ...


वो कहते है 
बहुत प्यार है तुमसे। 

हम भी पूछ बैठे .
कितना प्यार है हमसे !

जरा 
बताओ तो 
कितने किलो ,
कितने एकड़ .......!!

कोई तो नाप - तोल  ,
परिधि 
प्यार की भी होती ही है !

हाँ मैं तुम्हे दस ग्राम ,
और डेढ़  क्यारी प्यार करता 
हूँ ...


दस ग्राम !डेढ़ क्यारी !!

हाँ मुझे  
दस ग्राम कस्तूरी
  और केसर की डेढ़ क्यारी
 जितना प्यार है तुमसे। 

Monday 17 March 2014

मैं यूँ ही अनजाने ख्वाब बुनती रही ...


उसे  तो मुझे 
देखते ही
नफरत हो गयी थी ....


फिर वह किसी 

और से नफरत 
नहीं कर पाया ...

 मैं उसकी नफरत में ही 
प्रेम ढूंढ़ती रही 
बुनती रही 
अनजाने ख्वाब ...

उसकी शिकायतों को 

 भिगोती रही 
आंसुओं में ...
 उसकी नफरत प्रेम में
बदल ही ना सकी 


मैं यूँ ही अनजाने 
ख्वाब बुनती रही 
नफरत में प्रेम  की तलाश
करती रही ...


उपासना सियाग 
( चित्र गूगल से साभार )

Sunday 16 March 2014

होली ..


होले -होले  रंग
रच ही गया
पिया तेरे प्रेम का

कौनसे रंग से
खेलूं मैं अब
तुझ संग इस होली

मैं तो तेरी
बरसों पहले ही
" हो ली "

~ उपासना ~







Wednesday 12 March 2014

क्यूँ कि तुम स्वयं कविता नहीं हो ....



स्त्री
तुम श्रद्धा नहीं हो ,
एक पात्र हो कविता का।
तुम पर लिख डाली जाती है
एक कविता !
तुम्हारे आँसू
कवि की
कविता की स्याही बनते है।

कविता फूट पड़ती है कवि हृदय से
जब तुम
कोयला-पत्थर तोड़ती ,
सर पर तगारी ,
कोख में बच्चा समेटे दिख जाती हो।

तुम्हारा दर्द तब
कागज़ के पन्नों को
काला करने लगता।

तो  क्या ?
तुम्हारा दर्द -बोझ भी कम
हो जाता है !

कविता क्या तलाशती है
बच्चे को दूध पिलाती स्त्री में !
स्त्री की ममता या
उसके साये में छिपा स्त्री का रूप।

कविता लिख दी जाती है
बारिश में भीगती हुई स्त्री की
और उसकी सोच की भी।

यह भी क्या जरुरी है कि
कवि की सोच से
बारिश में भीगती स्त्री की
 सोच मिल ही जाए।

कौन जाने
वो बाबुल के आँगन का सावन
और सावन के झूले में ही हिंडोल रही हो
या फिर
सखियों के साथ
पानी में छई -छप्पा -छई ही कर रही हो।

लेकिन तुम स्वयं
कैसे सोचोगी स्त्री !
यहाँ भी पाबन्दी है तुम्हारी सोच पर।

क्यूँ कि तुम स्वयं
कविता नहीं हो
एक कठपुतली की तरह
मात्र कविता का पात्र ही हो।







Monday 10 March 2014

मेरा चाँद बस तेरा नाम...

मुझे घेरे रहते हैं
लाखों सवाल ,
मेरा एक ही जवाब
बस तेरा नाम।

मैं घिरी हूँ चाहे
लाख अंधेरों में,
मेरी रोशनी की किरण
बस तेरा नाम।

ब्रह्माण्ड में लाखों ग्रह
इन ग्रहों के हो चाहे
अनगिनत चंद्रमा ,
मेरा चाँद
बस तेरा नाम।


Friday 28 February 2014

ਰੱਬ ਕੋਲੋਂ ਇੱਕ ਮੰਨਤ ਮੰਗੀਏ ( रब से एक मन्नत मांगे )

ਆ ਚੱਲ
ਇੱਕ ਮੰਨਤ  ਮੰਗੀਏ

ਝੋਲੀ ਫੈਲਾਇਏ
ਹਥ  ਜੋੜ ਕੇ
ਰੱਬ ਕੋਲੋਂ ਇੱਕ ਮੰਨਤ ਮੰਗੀਏ

ਕੀ ਮੰਗਾਂ ਇਹ
ਸੋਚਾਂ ਚ
ਰਹਿੰਦੀ ਹਾਂ

ਚੰਨ ਮੰਗੀਏ ,
ਤਾਰੇ ਮੰਗੀਏ
ਜਾਂ
ਸਮੁੰਦਰ ਦੀ ਲਹਿਰਾਂ ਹੀ
ਮੰਗੀਏ

ਜੇ ਮੈਂ ਚੰਨ ਮੰਗਿਆ
ਓਹ ਮੇਰਾ ਚੰਨ ਨਾ ਹੋਇਆ ਤਾਂ !
ਕਿਸੀ ਹੋਰ ਦਾ ਚੰਨ
ਮੈਨੂੰ ਨਹੀ ਚਾਹਿਦਾ।

ਇੰਨੇ ਸਿਤਾਰਿਆਂ ਚ
ਮੇਰਾ ਸਿਤਾਰਾ ਕਿਹੜਾ ਹੈ
ਇਹ ਮੈਂ
ਕਿਵੇਂ ਜਾਣਾਗੀ !

ਕਿਸੀ ਹੋਰ ਦੇ ਆਸ ਦਾ
ਟੁੱਟਿਆ ਸਿਤਾਰਾ
 ਮੈੰਨੂ ਨਹੀ ਚਾਹਿਦਾ।

ਸਮੁੰਦਰ ਦੀ ਲਹਿਰਾਂ ਵੀ ਤਾਂ
ਕਦੋਂ ਆਪਣੀ ਹੁੰਦੀ ਹੈ
ਕਿਸ ਲਹਿਰ  ਤੇ
ਭਰੋਸਾ ਕਰੀਏ !

ਕੋਈ ਲਹਰ ਹੋਲੀ
ਤੇ
ਕੋਈ ਲਹਰ ਕਦੋਂ
ਸੁਨਾਮੀ ਬਣ ਜਾਏ ਕੀ ਭਰੋਸਾ !
ਮੈੰਨੂ ਇਹੋ ਜਿਹੀ  ਲਹਿਰਾਂ ਵੀ
ਨਹੀ ਚਾਹਿਦੀ।

ਇਹ ਸੋਚਦੀ ਹਾਂ
ਮੰਨਤ ਵਿਚ ਮੈਂ
ਰੱਬ ਕੋਲੋਂ
ਤੈੰਨੂ ਹੀ ਮੰਗ ਲਿਆਂ
ਤੂੰ ਤਾਂ ਕਦੇ ਵੀ ਨਾ ਬਦਲੇਗਾ
ਚੰਨ -ਸਿਤਾਰਿਆਂ ਤੇ ਲਹਿਰਾਂ ਵਾੰਗ।

............................. ( हिंदी -अनुवाद ).....................................

आओ चलो
एक मन्नत मांगे

झोली फैला कर
हाथ जोड़ कर
रब से एक मन्नत मागें

क्या मांगू
यही सोच में
रहती हूँ

चाँद मांगू ,
सितारे मांगू
या
समुंदर की  लहरें ही
मांग लूँ

अगर मैंने चाँद माँगा
वो मेरा चाँद
ना हुआ तो !
किसी और का चाँद
मुझे नहीं चाहिए।

इतने सितारों में
मेरा सितारा कौनसा है
यह मैं कैसे जानूगी !

किसी और के
आस का टूटा सितारा
मुझे नहीं चाहिए।

समुन्दर की लहरें
भी तो कब
अपनी हुई है
किस लहर पर भरोसा
करुं ,
कोई लहर धीमी तो
कोई लहर कब
सुनामी बन जाए !
मुझे ऐसी लहरें भी नहीं चहिये।

यह सोचती हूँ
मन्नत में
मैं
रब से तुम्हें  ही मांग लेती हूँ !
तुम तो कभी नहीं बदलोगे
चाँद-सितारों और
लहरों की तरह।











Tuesday 25 February 2014

ऐसा भी होता है कभी !

कोई अपना ,
अनजान सा बन
चुपके से आ
मन के
आंगन में झांक जाये
और
पता भी ना चले

कोई अपना
बन अनजाना सा
बिन आहट
बिन परछाई आ कर चला जाये

ऐसा भी होता है कभी !
मन की गीली मिट्टी
पर पड़े
क़दमों के निशान
उस अनजाने के अपने होने की
गवाही दे ही जाते हैं


Tuesday 18 February 2014

जब से जिंदगी को देखा करीब से ...




मौत कितनी आसान है
और
जिंदगी कितनी कठिन
ये कठिनता पार कर ही तो
आसानी मिलती है


कौन अपना
  कौन पराया यहाँ ,                          
सबके सब है यहाँ
   नकाब -धारी

नकाबों से झांकती
आँखों में
जब से  देखा भय
जिंदगी के लिए
भय दूर हो गया मौत का

भय नहीं लगता है
मुझे अब  ,
जब से जिंदगी को देखा
करीब से

मौत ही अपनी सी लगी
एक दिन उसकी गोद ही तो मंज़िल है
अच्छी और सच्ची !

अभी तो जिन्दा रहना है
कुछ बरस और मुझे ,
मांगने से भी
मौत मिली है कभी !

चाँद -सितारों ,
ग्रह - नक्षत्रों से
उलझी जिंदगी अभी और
बितानी है मुझे ....!







Wednesday 12 February 2014

तुम्हारे ख़त भी मैंने सम्भाले रखे है ...

तुमने कहा
कि
तुम ने अब भी मेरे ख़त
सम्भाले हैं
छुपा कर रखे हैं उन को
एक अलमारी में
किसी अख़बार के नीचे छुपा कर
दबे अरमानो की तरह ...

तुमने कहा और मैं
बिन हवा
बिन पानी
मुरझाई सी लता ,
फिर से हरी हो गई...

जी लिए
बरसों पुराने पल
जो तुम्हारे साथ बिताये थे...

मैं तुम्हें नहीं बता सकी
कि
तुम्हारे ख़त भी
मैंने सम्भाले रखे है
एक पुराने सन्दूक जैसे गुल्लक में ...

गुल्लक में ही रखे
क्यूंकि वहाँ रखने से यादें
जमा होती जाती है
खर्च करते दर सा लगता है ...

जब भी मैं
मुरझाने लगती हूँ
पढ़ लेती हूँ
यादों के गुल्लक से कुछ यादें
और
फिर से हरी हो जाती हूँ
लहलहाती लता सी ...

क्या  तुम भी
मेरे ख़त
पढ़ते हो या
अब भी छिपा कर रखे हैं ...

या रखें है दबा कर
बिन हवा ,
बिन पानी के
अलमारी के किसी अख़बार में
जैसे कोई अरमान
मेरे और तुम्हारे ....







Sunday 9 February 2014

जहाँ तुम मेरे अपने तो होते हो

सुनो !
कल मैंने तुम्हें
फिर से सपने में देखा
कितने सौम्य
कितने अपने से लगे

चेहरे पर वही चिरपरिचित मुस्कान
जो मैंने देखी  थी
पहली बार
जब तुम मुझसे मिले थे

लेकिन
यह सच तो ना था !
केवल सपना ही था
कि तुम
मुझे देख कर मुस्कुराये

सपने की  दुनिया से बाहर
तुम कहाँ मुस्कुराते हो

फूला  मुख और नाक
टेढ़ी भृकुटियाँ
चेहरे पर परेशानी
और अजनबीपन
कितने पराये से लगते हो

सच क्या है !
समझ से परे है
कि
तुम मेरे अपने सपने वाले हो
कि
सपने के बाहर  के !

इस दुनिया के रतजगे से
सपनो की
दुनिया ही बेहतर है
जहाँ तुम मेरे अपने तो होते हो
अपनेपन से भरपूर ....

Wednesday 5 February 2014

ऐसे हाथों के साथ का इंतज़ार क्यूँ !

दो हाथ मिले
जिनमे न कोई वादा था
ना ही कोई इकरार
फिर से मिलने का
 मिले भी तो
मिलने के  लिए नहीं
बिछुड़ने के लिए ही मिले

बिछुड़ ही गए
अपनी -अपनी मंज़िल के लिए

बरसों बाद फिर मिले
इस बार भी मिलने के लिए नहीं
बिछुड़ने के लिए ही
ये हाथ  समय की चादर पर पड़ी
सलवटे ना दूर कर सके
बिन मिले ही बिछुड़ गए

जो हाथ
मिलने के लिए बने ही नहीं

फिर 
ऐसे हाथों के साथ का
इंतज़ार क्यूँ !
जो ज़माने की भीड़ का हिस्सा बन
गुम हो जाये
पुकारने पर भी ना आये
अनसुना ही रहे बन कर.…

लेकिन
समय के केलेंडर पर
जो तारीख ,' तारीख़ ' बन जाती है
वह रह -रह कर याद आती है







Sunday 2 February 2014

मत आजमाइए कभी अपनों के अपने होने को

मत आजमाइए
कभी अपनों के अपने होने का
उनके  प्रेम को,
अगर भरम है यह
कि वो अपने है
तो रखिये उनका भरम ही
 अपने होने का

ना झेल सकेगा कोई
सच्चाई
उतरेंगे जब मुखोटे ,
उन मुखोटों के पीछे के चेहरे
कितने भयावह होंगे
यह कौन सह पायेगा !

मुखोटा लगा
चेहरा ही अपने होने का
भरम देता है अगर,
मत झांकिए
मुखोटों के पार

जवाब दीजिये मुस्कान का ,
मुस्कान से ही
मत नापिये
मुस्कानों के इंच , परिधियाँ
और कोण

मत तोलिये  उनके
प्रेम से भरे विषैले  शब्दों को
अपने हृदय की  तराज़ू से ,
सहते रहिये
अपने हृदय पर शूल से


यह  अपनेपन भरम ही
 रखता है जिन्दा
हर किसी को
बिखर कर टूट जाओगे
अगर ये भरम न हो
मत आज़माओ कभी
 अपनों के अपनेपन को

Friday 31 January 2014

आत्मा से बंधे रिश्ते


कुछ रिश्ते
जो तन के होते हैं
केवल
तन से ही जुड़े होते हैं
वे मन से कहाँ जुड़ पाते हैं

तभी तक  साथ होते हैं वे
जब तक जुडी हैं मांसपेशियां
अस्थियों से
या फिर
अस्थि-मज्ज़ा में रक्त बनता है
 तब तक ही शायद

यहाँ
हृदय धड़कता भी है तो
 केवल
रक्त प्रवाहित करने के लिए
 धड़कन से
जीवन चलता है
रक्त वाहिनियों को सजीवित करता हुआ

तन के रिश्ते

गँगा में बहा दिए जाते है
एक दिन अस्थियों के साथ ही
और आत्मा  आज़ाद हो जाती है
एक अनचाहे पिंजरे से
और  अनचाहे रिश्तों से भी


आत्मा से बंधे रिश्ते
 तन के बंधनो में नहीं बंधते ,
बन कर रिश्ते नहीं रिसते
पल-पल रक्त वाहिनियों में ही कभी ,
 निराकार आत्मा
बिन अस्थियों  ,
मांसपेशियों के ही जुड़ी रहती है,
विलीन हो जाती है
एक दूसरी आत्मा में
जहाँ पिंजरे की  नहीं होती जरूरत
ना ही अनचाहे रिश्तों की ही





Friday 24 January 2014

यह ईश्वर का प्रेम है या श्राप !

ईश्वर की सबसे
खूबसूरत कृति है
इंसान
ऐसा ही कहा जाता है

ना केवल खूबसूरत
बल्कि
प्रेम भी अधिक है उसे
इंसान से
यह भी माना  जाता है या भ्रम मात्र ही है

प्रेम है  या नहीं है
या
शायद  उसे प्रेम ही है
इंसान से ,
तभी तो हृदय बनाया उसने ,
उसमें !

हृदय बना कर
ईश्वर ने
कभी न पूरी होने वाली
आशाएं -उम्मीदें जगाई
अपनों को अपना समझने का भरम भी जगाया
ये कैसा प्रेम है ईश्वर का

कभी लगता है
यह ईश्वर का
प्रेम है या श्राप !
कैसे उलझन में उलझाये रखता है

इंसान धरा पर यूँ ही
घूमता है शापित सा
ह्रदय में ईश्वर का प्रेम लिए
और चेहरे पर संताप  .... !





Tuesday 7 January 2014

और उड़ना भी नहीं सिखाया ..

माँ ने
अपनी नन्ही सी
बिटिया को
चिड़िया भी कहा
और
उड़ना भी नहीं सिखाया..

माँ ने
अपनी दुलारी सी
बिटिया को
खिड़की से झांकता
सीमित आसमान भी
दिखाया
उड़ने की  चाह को
अनदेखा किया..

यह क्या माँ !
तुमने आसमान
दिखाया
उसमे चमकता चाँद भी
 दिखाया
लेकिन अपनी चिड़िया के
पंख ही काट डाले...



Sunday 5 January 2014

ये जीवन जैसे कोई किराये का घर हो

ये  जीवन
जैसे कोई
किराये का घर हो
हर एक सांस पर
हर एक कदम पर
हर एक मंजिल पर
किराया ही तो भरना होता है ..


माना कि
ये जीवन
किराये का ही घर है
फिर भी
मोह -माया से
मन जकड़ा जाता है
हर एक दीवार से प्रेम
होता जाता है

सुरक्षा का अहसास देती है
ये दीवारें
हर छत जैसे
पल -पल जीने का
हौसला सा देती....

माना कि
एक दिन अपने घर
जाना ही होगा
मोह-माया को परे कर
 ये किराये का घर छोड़ कर

फिर भी
संवेदनाओं और भावनाओं
का किराया लेता
ये घर भी  बहुत प्यारा
लगता है ...






Wednesday 1 January 2014

समय के कलेंडर पर जो तारीख ठहर जाती है ..

कुछ घंटे
कुछ  प्रहर
कुछ दिन
और
दिनों से मिल कर
 बने महीने

महीनों ने मिल कर
साल बनाया
कितने साल गुज़रे
कितने कलेण्डर बदले
ऐसे ही जीवन बीता जाता है

कलेण्डर बदलते हैं
तारीखें भी बदल जाती है
लेकिन जब कभी
समय के कलेंडर पर
कोई  तारीख ठहर जाती है
वह 'तारीख़ ' बन जाती है