Friday 28 February 2014

ਰੱਬ ਕੋਲੋਂ ਇੱਕ ਮੰਨਤ ਮੰਗੀਏ ( रब से एक मन्नत मांगे )

ਆ ਚੱਲ
ਇੱਕ ਮੰਨਤ  ਮੰਗੀਏ

ਝੋਲੀ ਫੈਲਾਇਏ
ਹਥ  ਜੋੜ ਕੇ
ਰੱਬ ਕੋਲੋਂ ਇੱਕ ਮੰਨਤ ਮੰਗੀਏ

ਕੀ ਮੰਗਾਂ ਇਹ
ਸੋਚਾਂ ਚ
ਰਹਿੰਦੀ ਹਾਂ

ਚੰਨ ਮੰਗੀਏ ,
ਤਾਰੇ ਮੰਗੀਏ
ਜਾਂ
ਸਮੁੰਦਰ ਦੀ ਲਹਿਰਾਂ ਹੀ
ਮੰਗੀਏ

ਜੇ ਮੈਂ ਚੰਨ ਮੰਗਿਆ
ਓਹ ਮੇਰਾ ਚੰਨ ਨਾ ਹੋਇਆ ਤਾਂ !
ਕਿਸੀ ਹੋਰ ਦਾ ਚੰਨ
ਮੈਨੂੰ ਨਹੀ ਚਾਹਿਦਾ।

ਇੰਨੇ ਸਿਤਾਰਿਆਂ ਚ
ਮੇਰਾ ਸਿਤਾਰਾ ਕਿਹੜਾ ਹੈ
ਇਹ ਮੈਂ
ਕਿਵੇਂ ਜਾਣਾਗੀ !

ਕਿਸੀ ਹੋਰ ਦੇ ਆਸ ਦਾ
ਟੁੱਟਿਆ ਸਿਤਾਰਾ
 ਮੈੰਨੂ ਨਹੀ ਚਾਹਿਦਾ।

ਸਮੁੰਦਰ ਦੀ ਲਹਿਰਾਂ ਵੀ ਤਾਂ
ਕਦੋਂ ਆਪਣੀ ਹੁੰਦੀ ਹੈ
ਕਿਸ ਲਹਿਰ  ਤੇ
ਭਰੋਸਾ ਕਰੀਏ !

ਕੋਈ ਲਹਰ ਹੋਲੀ
ਤੇ
ਕੋਈ ਲਹਰ ਕਦੋਂ
ਸੁਨਾਮੀ ਬਣ ਜਾਏ ਕੀ ਭਰੋਸਾ !
ਮੈੰਨੂ ਇਹੋ ਜਿਹੀ  ਲਹਿਰਾਂ ਵੀ
ਨਹੀ ਚਾਹਿਦੀ।

ਇਹ ਸੋਚਦੀ ਹਾਂ
ਮੰਨਤ ਵਿਚ ਮੈਂ
ਰੱਬ ਕੋਲੋਂ
ਤੈੰਨੂ ਹੀ ਮੰਗ ਲਿਆਂ
ਤੂੰ ਤਾਂ ਕਦੇ ਵੀ ਨਾ ਬਦਲੇਗਾ
ਚੰਨ -ਸਿਤਾਰਿਆਂ ਤੇ ਲਹਿਰਾਂ ਵਾੰਗ।

............................. ( हिंदी -अनुवाद ).....................................

आओ चलो
एक मन्नत मांगे

झोली फैला कर
हाथ जोड़ कर
रब से एक मन्नत मागें

क्या मांगू
यही सोच में
रहती हूँ

चाँद मांगू ,
सितारे मांगू
या
समुंदर की  लहरें ही
मांग लूँ

अगर मैंने चाँद माँगा
वो मेरा चाँद
ना हुआ तो !
किसी और का चाँद
मुझे नहीं चाहिए।

इतने सितारों में
मेरा सितारा कौनसा है
यह मैं कैसे जानूगी !

किसी और के
आस का टूटा सितारा
मुझे नहीं चाहिए।

समुन्दर की लहरें
भी तो कब
अपनी हुई है
किस लहर पर भरोसा
करुं ,
कोई लहर धीमी तो
कोई लहर कब
सुनामी बन जाए !
मुझे ऐसी लहरें भी नहीं चहिये।

यह सोचती हूँ
मन्नत में
मैं
रब से तुम्हें  ही मांग लेती हूँ !
तुम तो कभी नहीं बदलोगे
चाँद-सितारों और
लहरों की तरह।











Tuesday 25 February 2014

ऐसा भी होता है कभी !

कोई अपना ,
अनजान सा बन
चुपके से आ
मन के
आंगन में झांक जाये
और
पता भी ना चले

कोई अपना
बन अनजाना सा
बिन आहट
बिन परछाई आ कर चला जाये

ऐसा भी होता है कभी !
मन की गीली मिट्टी
पर पड़े
क़दमों के निशान
उस अनजाने के अपने होने की
गवाही दे ही जाते हैं


Tuesday 18 February 2014

जब से जिंदगी को देखा करीब से ...




मौत कितनी आसान है
और
जिंदगी कितनी कठिन
ये कठिनता पार कर ही तो
आसानी मिलती है


कौन अपना
  कौन पराया यहाँ ,                          
सबके सब है यहाँ
   नकाब -धारी

नकाबों से झांकती
आँखों में
जब से  देखा भय
जिंदगी के लिए
भय दूर हो गया मौत का

भय नहीं लगता है
मुझे अब  ,
जब से जिंदगी को देखा
करीब से

मौत ही अपनी सी लगी
एक दिन उसकी गोद ही तो मंज़िल है
अच्छी और सच्ची !

अभी तो जिन्दा रहना है
कुछ बरस और मुझे ,
मांगने से भी
मौत मिली है कभी !

चाँद -सितारों ,
ग्रह - नक्षत्रों से
उलझी जिंदगी अभी और
बितानी है मुझे ....!







Wednesday 12 February 2014

तुम्हारे ख़त भी मैंने सम्भाले रखे है ...

तुमने कहा
कि
तुम ने अब भी मेरे ख़त
सम्भाले हैं
छुपा कर रखे हैं उन को
एक अलमारी में
किसी अख़बार के नीचे छुपा कर
दबे अरमानो की तरह ...

तुमने कहा और मैं
बिन हवा
बिन पानी
मुरझाई सी लता ,
फिर से हरी हो गई...

जी लिए
बरसों पुराने पल
जो तुम्हारे साथ बिताये थे...

मैं तुम्हें नहीं बता सकी
कि
तुम्हारे ख़त भी
मैंने सम्भाले रखे है
एक पुराने सन्दूक जैसे गुल्लक में ...

गुल्लक में ही रखे
क्यूंकि वहाँ रखने से यादें
जमा होती जाती है
खर्च करते दर सा लगता है ...

जब भी मैं
मुरझाने लगती हूँ
पढ़ लेती हूँ
यादों के गुल्लक से कुछ यादें
और
फिर से हरी हो जाती हूँ
लहलहाती लता सी ...

क्या  तुम भी
मेरे ख़त
पढ़ते हो या
अब भी छिपा कर रखे हैं ...

या रखें है दबा कर
बिन हवा ,
बिन पानी के
अलमारी के किसी अख़बार में
जैसे कोई अरमान
मेरे और तुम्हारे ....







Sunday 9 February 2014

जहाँ तुम मेरे अपने तो होते हो

सुनो !
कल मैंने तुम्हें
फिर से सपने में देखा
कितने सौम्य
कितने अपने से लगे

चेहरे पर वही चिरपरिचित मुस्कान
जो मैंने देखी  थी
पहली बार
जब तुम मुझसे मिले थे

लेकिन
यह सच तो ना था !
केवल सपना ही था
कि तुम
मुझे देख कर मुस्कुराये

सपने की  दुनिया से बाहर
तुम कहाँ मुस्कुराते हो

फूला  मुख और नाक
टेढ़ी भृकुटियाँ
चेहरे पर परेशानी
और अजनबीपन
कितने पराये से लगते हो

सच क्या है !
समझ से परे है
कि
तुम मेरे अपने सपने वाले हो
कि
सपने के बाहर  के !

इस दुनिया के रतजगे से
सपनो की
दुनिया ही बेहतर है
जहाँ तुम मेरे अपने तो होते हो
अपनेपन से भरपूर ....

Wednesday 5 February 2014

ऐसे हाथों के साथ का इंतज़ार क्यूँ !

दो हाथ मिले
जिनमे न कोई वादा था
ना ही कोई इकरार
फिर से मिलने का
 मिले भी तो
मिलने के  लिए नहीं
बिछुड़ने के लिए ही मिले

बिछुड़ ही गए
अपनी -अपनी मंज़िल के लिए

बरसों बाद फिर मिले
इस बार भी मिलने के लिए नहीं
बिछुड़ने के लिए ही
ये हाथ  समय की चादर पर पड़ी
सलवटे ना दूर कर सके
बिन मिले ही बिछुड़ गए

जो हाथ
मिलने के लिए बने ही नहीं

फिर 
ऐसे हाथों के साथ का
इंतज़ार क्यूँ !
जो ज़माने की भीड़ का हिस्सा बन
गुम हो जाये
पुकारने पर भी ना आये
अनसुना ही रहे बन कर.…

लेकिन
समय के केलेंडर पर
जो तारीख ,' तारीख़ ' बन जाती है
वह रह -रह कर याद आती है







Sunday 2 February 2014

मत आजमाइए कभी अपनों के अपने होने को

मत आजमाइए
कभी अपनों के अपने होने का
उनके  प्रेम को,
अगर भरम है यह
कि वो अपने है
तो रखिये उनका भरम ही
 अपने होने का

ना झेल सकेगा कोई
सच्चाई
उतरेंगे जब मुखोटे ,
उन मुखोटों के पीछे के चेहरे
कितने भयावह होंगे
यह कौन सह पायेगा !

मुखोटा लगा
चेहरा ही अपने होने का
भरम देता है अगर,
मत झांकिए
मुखोटों के पार

जवाब दीजिये मुस्कान का ,
मुस्कान से ही
मत नापिये
मुस्कानों के इंच , परिधियाँ
और कोण

मत तोलिये  उनके
प्रेम से भरे विषैले  शब्दों को
अपने हृदय की  तराज़ू से ,
सहते रहिये
अपने हृदय पर शूल से


यह  अपनेपन भरम ही
 रखता है जिन्दा
हर किसी को
बिखर कर टूट जाओगे
अगर ये भरम न हो
मत आज़माओ कभी
 अपनों के अपनेपन को