रोज़ शाम को पास के
मंदिर से आती
घंटियों की मधुर - ध्वनि ,
पुजारी का मंत्रो का उच्चारण ,
जगमगाते दीपक,धूप की
चहुँ ओर फैली महक,
मुझे खींचने लगती है ...

पहुँच जाती हूँ अपने
प्रभु के सामने
 मैं यंत्रचलित सी ,
अपनी किस्मत से
ज्यादा मांग कर उसे
शर्मिंदा नहीं करती ...

बस लेखा - जोखा करती हूँ 
थोडा बतियाती भी हूँ ,
लेकिन कभी -कभी ,
 कोने में एक कमरे
के मकान में, पुजारी
के गरीबी से झूझते
परिवार को देख कर
मन में कई
सवाल भी उठने लगते है
दिन रात सेवा -पूजा ,
प्रभु का सानिध्य और
ये गरीबी ...

 जब पुजारी के बेटे
को शिव -लिंग से सिक्का
चुरा कर
भागते देखा तो 
आँखों मे पानी भर कर
भगवान् से
सवाल कर बैठी ...

ये कैसी माया है प्रभु !
तुम्हारा पुजारी
वह भी
माया का मुहताज ...!
पहली बार मंदिर
से खिन्न हो कर चली 
कि आवाज़ आई ...

रुको !!
अरे , ये क्या ?
मूर्ति ही बोल पड़ी 
सुनो पुत्री ;
फर्क होता है 
पुजारी और भक्त में ...

पुजारी की नज़र मुझ पर नहीं
चढ़ावे पर होती है 
वो तुम्हारे लिए पूजा - अर्चना
करता है ...
मुझे कब पुकारता है,
जितनी दक्षिणा मांगता है 
दिलवा देता हूँ  !
और में निरुत्तर सी चल पड़ी ...