रोज़ शाम को पास के
मंदिर से आती
घंटियों की मधुर - ध्वनि ,
पुजारी का मंत्रो का उच्चारण ,
जगमगाते दीपक,धूप की
चहुँ ओर फैली महक,
मुझे खींचने लगती है ...
पहुँच जाती हूँ अपने
प्रभु के सामने
मैं यंत्रचलित सी ,
मैं यंत्रचलित सी ,
अपनी किस्मत से
ज्यादा मांग कर उसे
शर्मिंदा नहीं करती ...
बस लेखा - जोखा करती हूँ
थोडा बतियाती भी हूँ ,
लेकिन कभी -कभी ,
लेकिन कभी -कभी ,
कोने में एक कमरे
के गरीबी से झूझते
परिवार को देख कर
मन में कई
सवाल भी उठने लगते है
दिन रात सेवा -पूजा ,
प्रभु का सानिध्य और
ये गरीबी ...
जब पुजारी के बेटे
को शिव -लिंग से सिक्का
चुरा कर
चुरा कर
भागते देखा तो
आँखों मे पानी भर कर
भगवान् से
सवाल कर बैठी ...
सवाल कर बैठी ...
ये कैसी माया है प्रभु !
तुम्हारा पुजारी
वह भी
माया का मुहताज ...!
पहली बार मंदिर
वह भी
माया का मुहताज ...!
पहली बार मंदिर
से खिन्न हो कर चली
कि आवाज़ आई ...
रुको !!
कि आवाज़ आई ...
रुको !!
अरे , ये क्या ?
मूर्ति ही बोल पड़ी
सुनो पुत्री ;
फर्क होता है
मूर्ति ही बोल पड़ी
सुनो पुत्री ;
फर्क होता है
पुजारी और भक्त में ...
पुजारी की नज़र मुझ पर नहीं
चढ़ावे पर होती है
चढ़ावे पर होती है
वो तुम्हारे लिए पूजा - अर्चना
करता है ...
मुझे कब पुकारता है,
मुझे कब पुकारता है,
जितनी दक्षिणा मांगता है
दिलवा देता हूँ !
और में निरुत्तर सी चल पड़ी ...
और में निरुत्तर सी चल पड़ी ...
बहुत सुंदर रचना,
ReplyDeleteआपको पढ़ना वाकई अच्छा लगता है..
कांग्रेस के एक मुख्यमंत्री असली चेहरा : पढिए रोजनामचा
http://dailyreportsonline.blogspot.in/2013/07/like.html#comment-form
वाह , बहुत सुंदर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteयहाँ भी पधारे ,
रिश्तों का खोखलापन
http://shoryamalik.blogspot.in/2013/07/blog-post_8.html
वाकई में फर्क होता है,पुजारी व्यापारी होता जा रहा है अभी पुरी से लौटा हूँ,हालत देख दंग रह गया
ReplyDeleteबहुत उम्दा लाजबाब अभिव्यक्ति ,,आभार उपासना जी,
ReplyDeleteपूजा-पाठ ने व्यवसाय का रूप धर लिया है ,और पूजा करवानेवाले अपना काम पूरा करवाने के लिए भगवान को रिश्वत देने आते हैं !
ReplyDeleteआप की कलम को नमन
ReplyDeleteईश्वर जानता है कोऊ क्या है और क्या चाहता है ...
ReplyDeleteवाह बहुत सुन्दर..
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