Sunday 24 January 2016

किसको सुनाइए दर्द अपना...

बुझ गए 
रंगोलियों पर रखे दीप 
बिखर गए 
सारे रंग। 

अब बिखरी हैं 
मायूसियां 
दर्द 
कराहटें। 

किसको सुनाइए 
दर्द अपना,
जब टीसता हो 
हर किसी का 
दर्द अपना अपना। 

चुप्पी भी 
असहनीय, 
कहा भी जाये 
फिर क्या कहा जाये।

कहें भी किसे 
बनावटी चेहरे है,
मूरतें हैं पत्थर की। 


Sunday 17 January 2016

अब तुम मत आना..

तपते सहरा में
चली हूँ अकेली मैं, 
जब छाँव भरी बदली 
ढक ले मेरे राह  को
शीतल कर दे मेरी डगर,
तब तुम मत आना।  

अमावस की अँधेरी रातों में 
सहमती, भयभीत सी 
चली हूँ अकेली मैं 
जब तारे
चाँद से बन मेरा राह संवारे 
तब तुम मत आना। 

आना था तुमको 
बन मेरा पथ-प्रदर्शक 
जब थी मैं अकेली 
बेबस, निसहाय सी। 

चली  हूँ  खुद मैं 
अपने सहारे 
ढूंढे है खुद ही अपने राह,
लिए झूठी हमदर्दी 
मुस्काते हुए 
अब तुम मत आना। 




Thursday 7 January 2016

कहाँ और कब तक रहोगे तुम छुप कर

ख़ामोशी पसर सी गई
चहुँ ओर 
जैसे सागर किनारे की मिट्टी।

लहरें भी लौट जाती हैं
धीमे से छू कर
बिना कुछ कहे।

सूनापन नहीं है फिर भी
तुम्हारे खामोश रहने पर भी
क्यूंकि

खामोश कहाँ हैं हवाएँ
महकती जो है
तुम्हारे चुपके से आ जाने से।

कहाँ और कब तक रहोगे
तुम छुप कर
जाओगे किस हद तक
मिलूंगी तुम्हें
हर सरहद पर मैं।