तपते सहरा में
चली हूँ अकेली मैं,
जब छाँव भरी बदली
ढक ले मेरे राह को
शीतल कर दे मेरी डगर,
तब तुम मत आना।
अमावस की अँधेरी रातों में
सहमती, भयभीत सी
चली हूँ अकेली मैं
जब तारे
चाँद से बन मेरा राह संवारे
तब तुम मत आना।
आना था तुमको
बन मेरा पथ-प्रदर्शक
जब थी मैं अकेली
बेबस, निसहाय सी।
चली हूँ खुद मैं
अपने सहारे
ढूंढे है खुद ही अपने राह,
लिए झूठी हमदर्दी
मुस्काते हुए
अब तुम मत आना।
बहुत सुन्दर और सार्थक अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना, "पांच लिंकों का आनन्द में" सोमवार 18 जनवरी 2016 को लिंक की जाएगी............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (18-01-2016) को "देश की दौलत मिलकर खाई, सबके सब मौसेरे भाई" (चर्चा अंक-2225) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपकी 'अब तुम मत आना 'बहुत सुन्दर है।
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