ख़ामोशी पसर सी गई
चहुँ ओर
जैसे सागर किनारे की मिट्टी।
लहरें भी लौट जाती हैं
धीमे से छू कर
बिना कुछ कहे।
सूनापन नहीं है फिर भी
तुम्हारे खामोश रहने पर भी
क्यूंकि
खामोश कहाँ हैं हवाएँ
महकती जो है
तुम्हारे चुपके से आ जाने से।
कहाँ और कब तक रहोगे
तुम छुप कर
जाओगे किस हद तक
मिलूंगी तुम्हें
हर सरहद पर मैं।
चहुँ ओर
जैसे सागर किनारे की मिट्टी।
लहरें भी लौट जाती हैं
धीमे से छू कर
बिना कुछ कहे।
सूनापन नहीं है फिर भी
तुम्हारे खामोश रहने पर भी
क्यूंकि
खामोश कहाँ हैं हवाएँ
महकती जो है
तुम्हारे चुपके से आ जाने से।
कहाँ और कब तक रहोगे
तुम छुप कर
जाओगे किस हद तक
मिलूंगी तुम्हें
हर सरहद पर मैं।
बहुत सुंदर .
ReplyDeleteनई पोस्ट : जैसे हिलती सी परछाई
सच आखिर कोई कितना दूर भागेगा अपनों से ...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
बहुत सुन्दर और भावपूर्ण प्रस्तुति....
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और भावपूर्ण प्रस्तुति....
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