Thursday, 7 January 2016

कहाँ और कब तक रहोगे तुम छुप कर

ख़ामोशी पसर सी गई
चहुँ ओर 
जैसे सागर किनारे की मिट्टी।

लहरें भी लौट जाती हैं
धीमे से छू कर
बिना कुछ कहे।

सूनापन नहीं है फिर भी
तुम्हारे खामोश रहने पर भी
क्यूंकि

खामोश कहाँ हैं हवाएँ
महकती जो है
तुम्हारे चुपके से आ जाने से।

कहाँ और कब तक रहोगे
तुम छुप कर
जाओगे किस हद तक
मिलूंगी तुम्हें
हर सरहद पर मैं।



4 comments:

  1. सच आखिर कोई कितना दूर भागेगा अपनों से ...
    बहुत सुन्दर

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  2. बहुत सुन्दर और भावपूर्ण प्रस्तुति....

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  3. बहुत सुन्दर और भावपूर्ण प्रस्तुति....

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