Sunday 29 November 2015

चलो तुम ही मन्नत की दुआ मांगो..

तुम ने मन्नत मांगी है
दूर जाने की मुझ से,
भूल जाने की मुझे।

एक मन्नत मेरी भी है
याद में ,
दिल में सदा
पास रखने की तुमको।

मन्नतें सदा
सच्ची ही होती हैं
क्यूंकि
मांगी जाती है दिल से।

मुश्किल में होगा
मन्नत पूरी करने वाला भी,
किसकी सुने और
न भी क्यों ना सुने।

चलो तुम ही
मन्नत की दुआ मांगो।
मेरी तो बिन मांगे ही
पूरी होती है मन्नतें।








Saturday 21 November 2015

ਕਿਵੇਂ ਬਣ ਦੀ ਕਹਾਣੀ ਤੇਰੀ ਤੇ ਮੇਰੀ !

ਨਿੱਕੀ - ਨਿੱਕੀ ਗੱਲਾਂ
ਤੇਰੀਆਂ ਤੇ
ਕੁਜ਼ ਮੇਰੀਆਂ ਵੀ।

ਇਹੋ ਨਿੱਕੀ ਗੱਲਾਂ
ਬਣ ਜਾਣੀ ਸੀ
ਕਹਾਣੀਆਂ।

ਕਿਵੇਂ ਬਣ ਦੀ
ਕਹਾਣੀ ਤੇਰੀ ਤੇ ਮੇਰੀ !

ਤੂ ਹੋਰ ਦਿਸ਼ਾ
ਵੱਲ ਚਲ ਪਿਆ ਤੇ
ਮੈਂ ਵੀ
ਮੁੜ ਗਈ ਸੀ
ਹੋਰ ਦਿਸ਼ਾ ਵੱਲੋਂ।


ਫੇਰ ਵੀ ਜਿੰਦਗੀ
ਮੇਰੇ ਲਈ
ਹੋਰ ਕੁਜ਼ ਵੀ ਨਹੀਂ,
ਬਸ ਤੇਰੀ- ਮੇਰੀ ਹੀ
ਕਹਾਣੀ ਹੈ।





Monday 16 November 2015

चालीस पार की औरतें

चालीस पार की औरतें
जैसे हो
दीमक लगी दीवारें !
चमकदार सा
बाहरी आवरण,
खोखली होती
भीतर से
परत -दर -परत।

जैसे हो
कोई विशाल वृक्ष,
नीड़ बनाते हैं पंछी जिस पर
बनती है
आसरा और सहारा
असंख्य लताओं का
लेकिन
गिर जाये कब चरमरा कर
लगा हो  घुन  जड़ों में।


 जीवन में
 क्या पाया
या
खोया अधिक !
सोचती,
विश्लेषण करती।

बाबुल के घर से
अधिक हो गई
पिया के घर की,
तलाशती है जड़ें
फिर भी,
चालीस पार की औरतें ! 

Tuesday 10 November 2015

तुम दीप बन जाना...


अँधेरा मेरे
मन का,
अमावस सा।

ना कर  सको
 अगर
चाँद सा उजाला। 
तुम,
दीप बन जाना।

बन कर
दीप
रोशन करना
मेरी आस का पथ।




Friday 30 October 2015

कहाँ खोजूँ तुम्हें ...

तुम्हें सोचा
तो सोचा,
देखूं एक बार तुम्हें।

लेकिन
जाने कहाँ
छुप गए हो
तुम तो कहीं !

फिर  देखूं तो
कहाँ देखूं ,
कहाँ खोजूँ तुम्हें ।

बिखरा तो है
बेशक़
तुम्हारा वजूद,
यहाँ-वहां।

मूर्त रूप
चाहूँ देखना तुम्हें,
फिर
कहाँ देखूँ !

खोजना जो चाहा
चाँद में तुम्हें।

सोचा मैंने  चाँद को
 तुम भी तो
देखते होंगे।

तुम चाँद में भी नहीं थे
 लेकिन,
क्यूंकि
अमावस की रात सी
तकदीर है मेरी।

Friday 16 October 2015

मछलियाँ और स्त्रियां...

मछलियाँ और स्त्रियां
कितना साम्य है
दोनों ही में !

मछलियाँ पानी में रहती है
और
पानी भरे रहती है आँखों में
स्त्रियां !

बिन पानी छटपटाती है
मछलियाँ
और
आँखों का पानी पोंछ
मुस्कुराती है स्त्रियां।

जाल में फँसा कर
मार दी जाती है मछलियाँ
और
रीत -रिवाज़,मोह - जाल  में फंस
खुद ही
ख़त्म हो जाती है स्त्रियां।

अथाह-विशाल सागर है
मछलियों का घर
तलाशती है फिर भी
एक कोना कहीं।

स्त्रियों को
बना जग-जननी,
सौंप दिया है सारा संसार,
खोजती है फिर भी
अपनी जगह,अपनी जड़ें।




Tuesday 29 September 2015

स्त्री प्रेम में क्यों कर कुलटा कहलाई ..

स्त्री ने लिखा
विश्वास
बेटी कहलाई।

स्त्री ने  लिखा
स्नेह
बहन कहलाई।

स्त्री ने  लिखा
समर्पण
पत्नी  कहलाई।

स्त्री ने  लिखा
ममता
माँ कहलाई।

स्त्री ने  लिखा
प्रेम !
तन गई
भृकुटियाँ,
उठ गई उंगलियाँ कई,
कुलटा कहलाई।

विश्वास
स्नेह
समर्पण
और ममता
प्रेम से इतर तो नहीं
फिर
स्त्री प्रेम में
क्यों कर
कुलटा कहलाई।


मैं धरती- पुत्र मंगल हूँ...

मैं धरती- पुत्र
मंगल हूँ
और मानव,
तुम भी तो
धरती- पुत्र ही हो।

फिर तो
मेरा और तुम्हारा |,
रक्त -सम्बन्ध
ही हुआ ना।


मैं प्रवाहित होता हूँ
तम्हारी रगों में
रक्त बन कर ,
रक्त संबंधों को
मजबूत करता हुआ।

ओज- पूर्ण


व्यक्तित्व देता हूँ मैं |
तुम्हारे भीतर एक
उर्जा का.
शक्ति का संचार कर।

जब भी आता हूँ किसी


क्रूर ग्रह के घेरे में,
क्रूरता की पराकाष्ठा पार भी
मैं ही कराता हूँ,
तुम्हारे व्यक्तित्व को।

मुझे हंसी
आ जाती है
जब तुम शोर मचाते हो
मंगल पर पानी मिल गया है,
अपने अंदर के पानी को भुला कर।

और सोचता हूँ
ऐसा भी समय आएगा
शायद
जब कहा जायेगा
रहा करता था कभी
इस धरती पर मानव

उसमे भी पानी था
शर्म का
मानवता का ...!

Friday 25 September 2015

क्या अब भी असहाय है राजकुमारियाँ ..


कैसी है
अंधेर नगरी यह,
भेड़िये घूमते हैं
दिन -दिहाड़े यहाँ ।

सुना था कभी
भेड़िये की मौत ही
खींच लाती है उसे
नगर की ओर ।

जमाना बदला है
या कहावत
 शिकार के लिए आते है यहाँ,
अब ये भेड़िये,
होते हैं पोषित
 राक्षसों के महलों में।

राजकुमार,
राजकुमार रहे ही कहाँ
लगता है झुक गए हैं  वह
राक्षसों के आगे
लगे हैं भेड़ियों के सुर में सुर मिलाने।

तो क्या अब भी असहाय  है
राजकुमारियाँ !
क्या इंतजार है अब भी उनको
किसी राजकुमार का ?

नहीं !
उसे नहीं है  इंतज़ार किसी
राजकुमार का,
अब  मशाल ले ली है उन्होंने
हाथों में अंपने
चल पड़ी है अपना मार्ग
खुद ही प्रशस्त करने।





Saturday 19 September 2015

रुदाली


रुदाली जिसे सिर्फ सुना,
पढ़ा है
कभी देखा नहीं ...

कभी
उसको सोचती हूँ,
उतरती हुई पाती हूँ
 कहीं अपने भीतर ही।

उसका रुदन, क्रंदन,
अनवरत बहते आंसू
कहीं से भी झूठे नहीं
लगते ...

क्या वह
वह अभिजात्य वर्ग की
लाश पर रुदन
करती है ...!
नहीं,
वह तो उनके दिए
क्रूर दंश पर रोती है।

 उसका
क्रंदन और भी तेज़
हो जाता है
जब लुटी अस्मत दिखाई दे
जाती है
लाश में बेटी की !

कभी मैं सोचती हूँ,
क्या रुदाली सिर्फ एक
व्यक्तित्व ही है ...!

एक भावना नहीं है क्या !
जो कहीं न कहीं .
निवास करती है हमारे भीतर भी।

क्यूँ कि अक्सर
हम भी
अपने दुखों को ही रो रहे
होते है .
दूसरों की  लाशों पर।

Thursday 17 September 2015

बिखरे हुए अक्षर चुन कर...

बिखरे हुए
अक्षर
चुन कर
बना दिए जाते हैं
मन चाहे
शब्द ...
मनचाहे शब्दों की
कड़ी
बुन देती है
वाक्य की जंजीर...
इस जंजीर में
भरे जाते हैं
भावों के रंग...
और बन जाती है
विभिन्न रंगों के
भाव भरी
एक रचना...

Monday 7 September 2015

हंसे या मुस्कुराएं...

जिन्दगी सम्भली सी
बंधी है
एक नियत  दायरे में ,
या
खुल कर
बिखरने को आतुर है ।

चुप रहें ,
बात करें ,
हंसे या
मुस्कुराएं....

सही राह
चलते रहना है
या
नई पगडंडियां भी
आजमाना है ।

बदहवास सी
भटकन ही तो है
यह जिंदगी ।

Monday 31 August 2015

खिल जाएगी यह धरा ....

प्रेम के जो बीज,
मुट्ठी में बंद किए थे,
वे बीज दिए मैंने
सूनी , उदास धरा पर ।

रंग भरे
प्रेम के बीज
खेत की मेंढ पर
एक -एक कर के
बीज दिए है ।

कुछ यूँ ही
हथेली में रख
धरा पर
बिखरा दिए ।

एक दिन जरूर
नवांकुर फूटेंगे
रंग भरे बीजों से
खिल जाएगी यह धरा ।

एक-एक मेंढ
खिलेगी प्रेम के रंगों से,
खिले रंगों के ,
रंग भरी
चूनर ओढ
खिलखिला पड़ेगी यह धरती भी ।

Monday 24 August 2015

तुम मुस्कुराओगे नहीं तो...

तुम चुप रहोगे
 तो क्या
बादल बारिश नहीं लाएगा
फिर तो
आसमान सूना ही
रहेगा शायद।

तुम बोलोगे नहीं
तो क्या
चिड़ियाँ सुर भूल जाएगी
फिर तो
बगिया सूनी ही रहेगी शायद।

तुम मुस्कुराओगे नहीं
तो क्या
सूरज दिन नहीं लाएगा
फिर तो
मेरे मन में अँधियारा ही रहेगा
यकीनन !

Tuesday 11 August 2015

इस बरस..

इस बरस
नज़र आ रहे हैं 
चहुँ ओर उगे हुए 
आक , धतूरे 
और भांग के पौधे |

इस बरस
भुजंग 
आने लगे हैं बाहर 
आस्तीनों से ,
उठाने लगे है फन |

लगता है 
इस बरस,
चन्दन भी अधिक 
लपेटना होगा शिव को |
  

Sunday 9 August 2015

इश्क में तेरे....

इश्क में तेरे
बदल लिया है वेश
फिरते हैं दर दर
तलाश में तेरी

दरस को तेरे
तरसे मेरे नैन
बस इक झलक
पा जाए
तर जाऊँ
भवसागर से

वेद पुराण
सब पीछे छोड़े
लिया है बस इक
तेरा नाम....

Wednesday 5 August 2015

कहाँ है मेरे पद चिन्ह !

अनुकरण करते -करते ,
पद चिन्हों पर
चलते -चलते
भूल ही गए अपने क़दमों की आहट।

मालूम नहीं था
एक दिन गुम हो जाना है
इस धरा में मिल  जाना है
बन कर मिट्टी।
या
विलीन हो जाना है
वायु में
बिना महक ,बिना धुँआ।

बस यूँ ही चलते ही गए
अनुगामी बन
ढूंढी ही नहीं कभी
अपनी राह।

 पैरों की रेखाएं ,
पद्म चिन्ह
सब  गुम हो गए ,
चलते -चलते
क़दमों पर कदम रखते।

आज मुड़ कर देखा
कहाँ है मेरे
पद चिन्ह !
उन्हें तो निगल गयी है
तपती धूप।





Wednesday 15 July 2015

औरतें ! औरतों की दुश्मन कब हुई है ...

औरतें !
औरतों की दुश्मन
होती है !
ये शब्द तो पुरुषों के ही है ,
कहलवाया गया है लेकिन यह
 औरतों की जुबान से।

और कहला कर
उनके दिमाग मे
बैठा दिया गया है अच्छी तरह से।

लेकिन औरतें !
औरतों की दुश्मन
कब हुई है भला …!

जितना  समझ सकती है
एक - दूसरी को ,
उतना और कौन समझता है।

उसकी उदासी में ,
तकलीफ में ,
उसके दुःख में
 कौन मरहम लगाती है !

कौन उसे
प्यार और ममता की
 चदार ओढ़ा देती है !
कौन स्नेह के धागे से
 बाँध लेती है !

एक औरत ही होती है ,
जो कभी माँ बनकर ,
कभी बहन तो
कभी एक सखी बन कर
दूसरी औरत का
 मन पढ़ लेती है।

और अपने प्यार से
सराबोर किये
रखती है। 

Monday 6 July 2015

तुम रूक गए हो बुकमार्क की तरह....

जिन्दगी की किताब के
हरेक पन्ने पर
सुंदर हर्फो से लिखी है
कितनी ही इबारतें
कदम अक्सर
ठिठक ही जाते हैं
किताब के उस पन्ने पर
जहाँ तुम रूक गए हो
बुकमार्क की तरह....


Saturday 20 June 2015

प्रेम तुम सिर्फ जीवन हो..

मैंने लिखा
प्रेम !
तुमने लिखा
विदाई !

प्रेम ,
तुम्हारा नाम
विदाई है क्या !

 चल पड़े
यूँ मुँह फेर के ,
पीठ घुमा कर।

एक बार भी
मेरी पुकार
क्या तुम
सुनोगे नहीं !

क्यूंकि
प्रेम का अर्थ
विदाई नहीं है।
केवल
प्रेम ही है,
मनुहार भी है।

लेकिन मनुहार
क्यों ,
किसलिए
तुम
 कोई  रूठे हो क्या मुझसे !

सच में रूठे हो !
फिर वंशी की धुन
किसे सुनाते हो !

प्रेम तुम
सिर्फ
जीवन हो  ,
मृत्यु नहीं !




Tuesday 16 June 2015

मुस्कुराहटें छुपा देती है दिलों के राज़....

मुस्कुराइए !
कि मुस्कुराहटें
छुपा देती है दिलों के राज़।
बन सकते हैं अफ़साने
जिन बातों से
मुस्कुराहटें रोक देती हैं ,
लबों पर आती बात।
बिन कही बातें
कह जाती है
तो
कभी -कभी
बेबसी छुपा भी जाती है
ये मुस्कुराहटें।
देखिये बस

मुस्कुराते लबों को ही,
न झाँकिये आँखों में कभी
ये आँखे इन मुस्कुराहटों
राज़ भी खोल देती है
बस मुस्कुराइए और मुस्कुराते रहिये।

Monday 8 June 2015

मैं तुम्हारे साथ हूँ !

ख़ामोशी को खामोश 
समझना 
भूल हो सकती है। 

कितनी हलचल 
अनगिनत ज्वार भाटे
समाये होते है।


आँखों में समाई नमी
जाने कितने समंदर 

छिपाए होते हैं।

नहीं टूट ते यह समंदर
ज्वार -भाटे ,
जब तक कोई
कंधे को छू कर ना कहे
कि
मैं तुम्हारे साथ हूँ !

Friday 22 May 2015

एक चिराग मुहब्बत का ..


एक चिराग मुहब्बत का 
जो जलाया था हमने, 
ना बुझ पाया दुनिया की 
नफरतों की आँधियों से ...

हम मिले या ना मिलें कभी 
रहेगा जहाँ भी चिराग,
रोशनी देता रहेगा..!!







Wednesday 20 May 2015

कैसा है मानव जो बना है दानव..

नभ है उदास क्यूँ ,
क्यूँ उदास है
देवी -देवता ,
चुप  हैं दीप
बुझी क्यूं दीपमाला।

सोचे हैं सभी
क्या सोच के यह धरा बनाई ,
धरा तो बनाई
ये प्राणी  क्यूं बनाये।

प्राणी तो बनाये ,
फिर मानव को
सर्वश्रेष्ठ क्यों बनाया।

बन सर्वश्रेष्ठ मानव
भूला मानवता ही ,
हृदय पाषाण बनाया।

बना पाषाण सा
पूजता भी पाषाण को
कैसा है मानव 
जो बना है दानव। 
अब यही सोचे हो उदास
देवी -देवता।

Sunday 17 May 2015

जिंदगी जैसे चौसर की बिसात ...

जिंदगी जैसे
चौसर की बिसात !

सभी के
अपने -अपने खाने है
अपनी -अपनी गोटियां है।
इंतज़ार है तो पासों के
गिर के बिखरने का।

पासों के बिखरने तक
अटकी रहती है सांसे।
कौन  जा रहा है आगे
और
कितने  घर आगे बढ़ना है।

पीछे रह ,
हार जाने का भय भी है।
आगे बढ़ने की होड़ में
किसी को पीछे
 धकेल भी  देना है।

हर कदम  पर है
प्रतियोगिता।
भय भी है
जीत के उन्माद में
पलटवार का।

फिर भी !
जिंदगी तो जिंदगी है।
चाहे चौसर की बिसात ही क्यों न हो ,
चलते जाना ही है ,
एक दिन तो मंजिल मिलेगी ही।

( चित्र गूगल से साभार )

Thursday 7 May 2015

अब चाँद को छूने की हसरत नहीं...

बचपन के
आँगन में
पानी भरी थाली में
चाँद देखना
जैसे आँगन में ही
चाँद उतर आया हो

नन्ही हथेलियों से
चाँद को छूने की चेष्टा में
पानी के हिल जाने से
चाँद का भी हिल जाना
और नन्हे  से  मन का खिल जाना..

खिले मन से
पानी को हथेली से
छपछपाना...

पानी बिखरा या
चाँद थाली से बाहर हुआ
क्या मालूम...!

शायद चाँद ही
क्योंकि
चाँदनी नन्हे गालों पर
खिल उठती...

समय बदला
आँगन भी वहीं है
पानी की थाली में
चाँद भी वही है..

अब चाँद को
छूने की हसरत नहीं
कि बिखर जाने का भय है
अब तो
अंजुरी में भर कर
रखने की तमन्ना है....

Tuesday 5 May 2015

माँ हो गई है कुछ कमजोर...

जीवन की
सांध्य बेला में
माँ हो गई है
शरीर से कुछ कमजोर
और याददाश्त से भी।

उसे नहीं रहता अब
कुछ भी याद  ,
तभी तो
वह भूल गई 
मेरी सारी गलतियां ,
शरारतें।

माँ को कहाँ
याद रहता है अपने बच्चों की
गलतियाँ।

 लेकिन उसे याद है
मेरी सारी
पसन्द -नापसन्द ,
नहीं भूली वह मेरे लिए
मेरा पसंदीदा खाना पकाना।

समय के साथ
कमज़ोर पड़ी है नज़र
लेकिन
बना देती है स्वेटर अब भी।

हाँ स्वेटर !
जिसे बनाने में कुछ ही दिन
लगाती थी वह ,
अब कुछ साल लग गए।

अनमोल धरोहर सी है
मेरे लिए वह स्वेटर।

माँ कमजोर तो हो गई  है ,
लेकिन अब भी
 मेरे आने की खबर पर
धूप में भी मेरे इंतज़ार में
 खड़ी रहती है दरवाज़े पर ।

मैं भी एक माँ ही हूँ
लेकिन नहीं हूँ
अपनी माँ सी प्यारी -भोली सी
और क्षमाशील।

सोचती हूँ
संसार की कोई भी माँ
नहीं होती है
अपनी माँ से बेहतर।








Thursday 30 April 2015

स्त्री अडिग ही रही सदैव...

स्त्री
सदैव खड़ी कर दी जाती है
सवालों के कटघरे में

जवाब को उसके
सफाई मान लिया जाता है
तो
खामोशी को उसका
जुर्म...

तीर जैसे सवालों को
सुनती, सहती है वह
अडिग ,
मुस्कराते हुए ...

स्त्री अडिग ही रही
सदैव
लेकिन
असहनीय है धरा के लिए
स्त्री का
यूँ मुस्कुरा कर
सहन करना ।

विदीर्ण हो जाता है
हृदय ,
और डोल जाती है धरती
आ जाता है
भूचाल....!

Thursday 16 April 2015

प्रेम बस तुम हमेशा ही कायम हो

प्रेम
तुम आशा हो
मन की प्रिया हो
तन-मन को जो बांधे
वो एकता हो।

प्रेम
तुम नील -गगन की
नीलिमा में हो
मन की अपार  शांति में हो।

प्रेम
बस तुम हो
कभी -कभी ही नहीं
हमेशा ही कायम  हो।



Wednesday 15 April 2015

कांच की चूड़ी सा नाज़ुक तेरा मन है पिया...

 कांच की चूड़ी सा नाज़ुक 
 तेरा मन है पिया ,
सम्भाल के रखूं 
बंद डिबिया में तुझे। 

जरा सी ठिठोली करूँ तो 
ठेस लगे तेरे मन को 
कांच सा तड़क जाये। 

तू क्या जाने 
तेरे तड़कने के डर से 
दिल कितना धड़के मेरा ,
रखूं संभाल -संभाल तुझे। 

 इक हंसी तेरी पिया 
खनका दे मेरा तन मन ,
चमकता -खनकता रहे तू 
मेरी कलाई में। 

जैसे मेरा मन ,वैसा ही तेरा रंग दिखे मुझे। 
सम्भालू  रखूं तुझे डिबिया में 
कांच की चूड़ी सा मन तेरा पिया। 



Sunday 12 April 2015

नज़रें शक से टटोलती है क्यों फिर..

सरहदों में बँटे देश !
इस पार मैं ,
उस पार भी मैं ही तो हूँ।

उधर के सैनिक मेरे ,
इधर के सैनिक भी मेरे ही हैं।
एक साथ उठते कदम
बंदूक - राइफल सँभालते।

दिलों में छुपा है कही
किसी कोने में दबा प्यार अब भी ,
नज़रें शक से टटोलती है
क्यों फिर।

दरवाज़ा उधर से बंद हुआ ,
दरवाज़ा बंद यहाँ से भी तो किया गया !
रह गई तो बस कंटीली बाड़
बीच ही में
दिलों को बेधती हुई।

बेबस झांकती रही
मेरी नज़र वहां से ,
झांक तो यहाँ से भी रही थी
 मैं बेबस सी। 

Friday 10 April 2015

प्रेम तुम जीत हो....

प्रेम
तुम जीत हो
लेकिन
हारा है हर कोई
तुम्हें पाने
की चाहत में...

 फिर
मैं क्यों कर जीत पाती ...

प्रेम
जहाँ तुम
वही मेरा डेरा

तुम्हारे कदमों
को पहचान
चली आती हूँ...

ढूंढ ही लेती हूँ
तुम्हें
साथ है सदा का,
जैसे
परछाई...

क्योंकि प्रेम
 तुम
प्रकाश हो
अंधकार नहीं....

Tuesday 7 April 2015

जीवन की सांध्य बेला से...

जीवन की
सांध्य बेला से पहले
साँझ हो जाने की सोचना
अजीब नहीं लगता
फिर भी  हैरान किए जाता है।

मोह भरी दुनिया से परे
एक  दूसरी दुनिया भी तो है !
जाने कैसी होगी ,
क्या मालूम !

वहां भी मोह - माया  का
जाल - जंजाल
होगा या नहीं !
कुछ पाने की ललक होगी
या  ना पाने की कसक होगी।

मैं - तू का झगड़ा होगा
या त्याग होगा ,
एक - दूसरे के लिए !
जाने क्या होगा ,
उस पार की दुनिया में !

जो भी हो
एक तार सा तो है
जो बेतार हुआ खींचता है।

बिन मोह की दुनिया से
मोह हुआ जाना
अजीब नहीं लगता ,
फिर भी  हैरान किए जाता है।

Sunday 5 April 2015

बेटे भी तो हैं सृष्टि के रचियता से.....

  बेटियां है अगर
लक्ष्मी, सरस्वती
और दुर्गा का रूप ।

 बेटे भी तो हैं प्रतिरूप
 नारायण, ब्रह्मा और शिव का।
सृष्टि के रचियता से
पालक भी हैं।

बेटियां अगर नाज़ है
तो बेटे भी मान है
 गौरव है
सीमा के प्रहरी है
देश के रक्षक है।

जैसे सर का हो ताज,
बहनों के होठों की मुस्कान,
माँ -बाप की आस है ,
बुढ़ापे की लाठी भी तो हैं बेटे।

 माँ की बुझती आँखों की
रोशनी है तो
पिता के कंधो का भार संभाले
वो  कोल्हू के बैल भी हैं।

निकल पड़ते हैं
अँधेरे में ही
तलाशते अपनी मंज़िल
बिन डरे
बिन थके।

दम लेते हैं मंज़िल पर जा कर
भर लेते हैं आसमान
बाँहों में अपने,
इस धरा के सरताज़ हैं बेटे।











Wednesday 1 April 2015

कुछ बाते रह गई मन की मन में

कुछ बाते कही तुमने ,
कुछ रह गई अनकही।
मन की कही भी ,
और रह गई  मन की मन में।

दूर बैठा कोई कैसे
सुनता - कहता है
समझता भी कैसे है !
बिना चिठ्ठी ,
बिना तार
कैसे होता है संचार ।

बातें जो कही
वह  तो सुन  ही नहीं पाई
अन कहा ही
देता रहा सुनाई।

खामोशी में जो
कोलाहल होता है
वह बतकही में कहाँ !







Saturday 28 March 2015

राम का राम होना आसान तो न था।

राम का
राम होना
आसान तो न था।

हर कोई
उर्मिला, कौशल्या ,
सुमित्रा के त्याग को सराहते ,
सीता पर हुए
अन्याय को है गाते.…

सीता को देख
लक्ष्मण रेखा के भीतर ,
हर कोई  छटपटाता ,
राम के
 मन के सागर में
लगा बाँध
राम किसे दिखाता ....

पुत्र राम सा हो ,
लेकिन
वर राम सा नहीं।
परन्तु क्यों ?

क्या इसलिए
कसौटी पर रखा
सीता को
अग्निपरीक्षा की
या दिया
सीता को  वनवास।

राम के लिए भी
क्या आसान था !
 मर्यादा का
बाँध बना कर
 बंधन सा जीवन जीना।

 जीवन जीना मर्यादा में
जैसे चलना था
कंटक पथ पर  जैसे !
क्या सच में कठिन नहीं था
राम का राम सा होना !


Wednesday 25 March 2015

प्रेम कभी -कभी तुम.....

प्रेम
कभी -कभी
तुम
दुःख हो ,विषाद हो।

और
कभी कभी
तुम
उदासी भी हो।

दूर से नज़र आती
रोशनी हो जैसे।

जो
दिखाई तो दे
मगर
उजाला ना करे।

जलती रहे
दिल में
 जलाये ही दिल को।

प्रेम
कभी -कभी
तुम ......


Saturday 21 March 2015

प्रेम से नाराजगी कैसी....

प्रेम से
नाराजगी कैसी
जब प्रेम हो
वट वृक्ष सा...
शीतल घनेरी
छाँव सी मुस्कान,
सरसराता ठंडा
झोंका सी
उसकी बातें ।
फैला हुआ हो
वजूद दूर तक
जैसे वट वृक्ष की जड़ें ।
मुरझाई लता मैं
बिन प्रेम
फिर
नाराजगी क्यों कर
ऐसे प्रेम से ।

Saturday 14 February 2015

प्रेम को खूंटी पर लटका दिया है मैंने....

प्रेम को
खूंटी पर लटका दिया है मैंने
झोली में डाल कर
दादी की पटारी में ।

पटारी ,
जिस में दादी
रखा करती थी
सूई , धागे और बटन ।

उधड़ते ही
जरा सी सीवन
दादी झट से सिल
दिया करती थी
वैसे ही जैसे,
पाट दिया करती थी
रिश्तों में पड़ी दरारें ।

अब मैंने भी
उसी पटारी में
प्रेम को रख दिया है
दादी की तरह
कोशिश मैं भी करती हूँ ।

जब तब
वह पटारी खोलकर
सिल देती हूँ
रिश्तों की उधड़ी
सीवन को
प्रेम को विश्वास की
सूई से ।

Saturday 31 January 2015

इस लिए सिर्फ तुम्हारा नाम लिखा ....

आओ साथी
एक पाती लिखें,
प्रेम भरा एक पाती,
एक दूजे के लिए...

तुमने लिखा
सूरज, चाँद और तारों पर
अधिपत्य तुम्हारा है !

धरती से
 आकाश की हद तक
हक तुम्हारा है !

जो कुछ तुम्हारा है
वही मेरा ही है !

सब कुछ 
लिख दिया तुमने !

मैंने लिखा
मेरी कलम में
सियाही बहुत कम है

इस लिए सिर्फ
तुम्हारा नाम लिखा ....

इंतज़ार को समझोगे.....

उदासियों को
समझोगे
समझ आएगा
मन का अकेलापन

अंधकार को
समझोगे
समझ आएगा
दीपक का अकेलापन

इंतज़ार को
समझोगे
समझ आएगा
मेरा अकेलापन....

Sunday 25 January 2015

हाइकु ( बेटी )


1 )
बेटी  जन्म
होता है वरदान
निराश क्यूँ हो

2)
धी चले जब
पहन के पायल
आँगन झूमे

3)
मुस्काती सुता
घर -आँगन हँसे
खिलखिलाए

4)
छूटा नैहर
मुड़ देखती बेटी
सजल नैन

5)
नया संसार
जड़ें जमाती बेटी
पिया का संग

6)
स्नेह बंधन
दो घरों से जोड़ती
बेघर बेटी

7)
मन ही मन
मन्नत है मांगती
बेटी है माता  

Wednesday 21 January 2015

पर्दों के पीछे इंसान जैसा कोई रहता है....

चारदीवारी में
एक बड़ा सा दरवाजा है
एक दरवाजा छोटा सा भी हैं
ताला लगा है लेकिन वहाँ
भीतर की तरफ

चारदीवारी के भीतर
कई खिड़की दरवाजों वाली
इमारत है
कुछ रोशनदान से झरोखे भी हैं
लेकिन  वे
कस कर बंद कर दिए गए हैं...

इस घर जैसी इमारत में
कई कमरे है
कमरों के दरवाजों पर पर्दे है ं

पर्दों के पीछे
इंसान जैसा कोई रहता है

इस इंसान के पास
हृदय जैसी एक चीज भी है
और
इस हृदय को
उड़ान भरने से कोई
ताला , चारदीवारी रोक
सकती  नहीं.....

Monday 19 January 2015

सबसे ऊपर तुम्हारा नाम लिखा...

ब्रह्मांड से
सबसे
चमकीले
सूरज चाँद चुने
उपवन से
सबसेमहकते
गुलाब चुने

लेकिन
फिर भी
लगा कुछ अधूरा
मुझे
इन में
सबसे ऊपर
तुम्हारा नाम लिखा
तब ही
मेरा जीवन
मधुर गान बना.....

Saturday 17 January 2015

हायकू ( बून्द )

1)
शशि किरण
बनी ओस की बून्द
चातक मन

2)
झिलमिलाती
चपल बालक सी
चंचल बूंदे

3)
कोमल छवि
कर पर कांपती
मोती सी बूंदे

4)
 बेबस मन
बरसती है बिन
बरखा बूंदे


Sunday 4 January 2015

तुम्हारा और मेरा आसमान....

अब अलग-अलग
है क्या
तुम्हारा और मेरा
आसमान

मेरे आसमान पर
घने बादल
और
तुम्हारे आसमान पर
चाँद -तारे

मुझे इंतज़ार था
तुम्हारे संदेशों का
जो तुमने कहा होगा
चाँद और तारों से

मैं ढूँढती रही,
ताकती रही
बार -बार आसमान
और किया इंतज़ार
घटाओं के बरस कर
घुल जाने का

लेकिन वो
घटाएं मेरी आँखों में
उतर आई है

बरसती आँखें
ना देख पाई
आसमान में लिखा संदेश....

इंतज़ार है अब
तुम्हारे और मेरे आसमान के
एक होने का

Saturday 3 January 2015

कोहरे में निकली औरत ...

कोहरे में निकली औरत
ठिठुरती , कांपती
सड़क पर जाती हुई ।

जाने क्या मज़बूरी रही होगी
इसकी अकेले
यूँ कोहरे में निकलने की !

क्या इसे ठण्ड नहीं लगती !

पुरुष भी जा रहें है !
कोहरे को चीरते हुए ,
पुरुष है वे !
बहुत काम है उनको !
घर में कैसे बैठ सकते हैं ?

लेकिन एक औरत ,
कोहरे में क्या करने निकली है ?

यूँ कोहरे से घिरी
बदन को गर्म शाल में लपेटे
सर ढके हुए भी
गर्म गोश्त से कम नहीं लगती।

कितनी ही गाड़ियों के शीशे
सरक जाते हैं ,
ठण्ड की परवाह किये बिना
बस !एक बार निहार लिया जाये
उस अकेली जाती औरत को !

कितने ही स्कूटर ,
हॉर्न बजाते हुए डरा जाते है
पास से गुजरते हुए।

वह बस चली जाती है।
थोड़ा सोचती
या मन ही मन हंसती हुई

वह औरत ना हुई
कोई दूसरे ग्रह का प्राणी हो ,
जैसे कोई एलियन !

ऐसे एलियन तो हर घर में है ,
फिर सड़क पर जाती
कोहरे में लिपटी हुई
औरत पर कोतूहल क्यों ?








Thursday 1 January 2015

बात करें हम कल ही की...

नए साल में
कल की बात
क्यों ना करें ,
कल से ही तो आज है....

कल थोड़ा गम था
आज खुशी की आशा है।
कल अंधकार था
आज रोशनी की ओर बढ़ते कदम है....

कल, कल - कल बहती नदिया थी
आज नदिया का सागर
बन जाने की तमन्ना है.....

कल की परछाई जब आज है ,
फिर क्यों ना करें
बातें कल की ,
आज का दिन भी
बन ही जाएगा कल। 

बात करें हम कल ही की
आने वाले कल की
आज की मुस्कान के
कल खिलखिलाहट बन जाने की...