Sunday 30 March 2014

माँ न जाने कैसे भांप लेती है ..


माँ
ना मालूम कैसे,
सब जान जाती है
पेट की जाई का दर्द।

कोने -कोने में
तलाशती है वह
बेटी की खुशियां
बेटी के घर आकर

दीवार पर टंगी
सुन्दर तस्वीरों के पीछे
छुपाई गई
दीवार की  बदसूरत
उखड़ी हुई पपड़ियां
माँ न जाने  कैसे भांप लेती है

बेल -बूटे  कढ़ी हुई
चादर के नीचे
उखड़ी -बिखरी सलवटें
माँ न जाने  कैसे भांप लेती है

हंसती आँखों से
सिसकता दर्द !
मुस्कराते होठों से
ख़ामोश रुदन !
माँ न जाने  कैसे भांप लेती है









Friday 21 March 2014

परिधि प्यार की ...


वो कहते है 
बहुत प्यार है तुमसे। 

हम भी पूछ बैठे .
कितना प्यार है हमसे !

जरा 
बताओ तो 
कितने किलो ,
कितने एकड़ .......!!

कोई तो नाप - तोल  ,
परिधि 
प्यार की भी होती ही है !

हाँ मैं तुम्हे दस ग्राम ,
और डेढ़  क्यारी प्यार करता 
हूँ ...


दस ग्राम !डेढ़ क्यारी !!

हाँ मुझे  
दस ग्राम कस्तूरी
  और केसर की डेढ़ क्यारी
 जितना प्यार है तुमसे। 

Monday 17 March 2014

मैं यूँ ही अनजाने ख्वाब बुनती रही ...


उसे  तो मुझे 
देखते ही
नफरत हो गयी थी ....


फिर वह किसी 

और से नफरत 
नहीं कर पाया ...

 मैं उसकी नफरत में ही 
प्रेम ढूंढ़ती रही 
बुनती रही 
अनजाने ख्वाब ...

उसकी शिकायतों को 

 भिगोती रही 
आंसुओं में ...
 उसकी नफरत प्रेम में
बदल ही ना सकी 


मैं यूँ ही अनजाने 
ख्वाब बुनती रही 
नफरत में प्रेम  की तलाश
करती रही ...


उपासना सियाग 
( चित्र गूगल से साभार )

Sunday 16 March 2014

होली ..


होले -होले  रंग
रच ही गया
पिया तेरे प्रेम का

कौनसे रंग से
खेलूं मैं अब
तुझ संग इस होली

मैं तो तेरी
बरसों पहले ही
" हो ली "

~ उपासना ~







Wednesday 12 March 2014

क्यूँ कि तुम स्वयं कविता नहीं हो ....



स्त्री
तुम श्रद्धा नहीं हो ,
एक पात्र हो कविता का।
तुम पर लिख डाली जाती है
एक कविता !
तुम्हारे आँसू
कवि की
कविता की स्याही बनते है।

कविता फूट पड़ती है कवि हृदय से
जब तुम
कोयला-पत्थर तोड़ती ,
सर पर तगारी ,
कोख में बच्चा समेटे दिख जाती हो।

तुम्हारा दर्द तब
कागज़ के पन्नों को
काला करने लगता।

तो  क्या ?
तुम्हारा दर्द -बोझ भी कम
हो जाता है !

कविता क्या तलाशती है
बच्चे को दूध पिलाती स्त्री में !
स्त्री की ममता या
उसके साये में छिपा स्त्री का रूप।

कविता लिख दी जाती है
बारिश में भीगती हुई स्त्री की
और उसकी सोच की भी।

यह भी क्या जरुरी है कि
कवि की सोच से
बारिश में भीगती स्त्री की
 सोच मिल ही जाए।

कौन जाने
वो बाबुल के आँगन का सावन
और सावन के झूले में ही हिंडोल रही हो
या फिर
सखियों के साथ
पानी में छई -छप्पा -छई ही कर रही हो।

लेकिन तुम स्वयं
कैसे सोचोगी स्त्री !
यहाँ भी पाबन्दी है तुम्हारी सोच पर।

क्यूँ कि तुम स्वयं
कविता नहीं हो
एक कठपुतली की तरह
मात्र कविता का पात्र ही हो।







Monday 10 March 2014

मेरा चाँद बस तेरा नाम...

मुझे घेरे रहते हैं
लाखों सवाल ,
मेरा एक ही जवाब
बस तेरा नाम।

मैं घिरी हूँ चाहे
लाख अंधेरों में,
मेरी रोशनी की किरण
बस तेरा नाम।

ब्रह्माण्ड में लाखों ग्रह
इन ग्रहों के हो चाहे
अनगिनत चंद्रमा ,
मेरा चाँद
बस तेरा नाम।