स्त्री
तुम श्रद्धा नहीं हो ,
एक पात्र हो कविता का।
तुम पर लिख डाली जाती है
एक कविता !
तुम्हारे आँसू
कवि की
कविता की स्याही बनते है।
कविता फूट पड़ती है कवि हृदय से
जब तुम
कोयला-पत्थर तोड़ती ,
सर पर तगारी ,
कोख में बच्चा समेटे दिख जाती हो।
तुम्हारा दर्द तब
कागज़ के पन्नों को
काला करने लगता।
तो क्या ?
तुम्हारा दर्द -बोझ भी कम
हो जाता है !
कविता क्या तलाशती है
बच्चे को दूध पिलाती स्त्री में !
स्त्री की ममता या
उसके साये में छिपा स्त्री का रूप।
कविता लिख दी जाती है
बारिश में भीगती हुई स्त्री की
और उसकी सोच की भी।
यह भी क्या जरुरी है कि
कवि की सोच से
बारिश में भीगती स्त्री की
सोच मिल ही जाए।
कौन जाने
वो बाबुल के आँगन का सावन
और सावन के झूले में ही हिंडोल रही हो
या फिर
सखियों के साथ
पानी में छई -छप्पा -छई ही कर रही हो।
लेकिन तुम स्वयं
कैसे सोचोगी स्त्री !
यहाँ भी पाबन्दी है तुम्हारी सोच पर।
क्यूँ कि तुम स्वयं
कविता नहीं हो
एक कठपुतली की तरह
मात्र कविता का पात्र ही हो।
Bahut sunder kavita.... !!
ReplyDeleteसुंदर भाव उपासना जी
ReplyDeleteसब औरों ने बना दिया ,वह स्वयं क्या है ये तो उसने ख़ुद भी नहीं सोचा: समझना तो दूर उन्हीं खाँचों में उलझी रही
ReplyDeleteबहुत सुंदर भाव.
ReplyDeleteनई पोस्ट : होली : अतीत से वर्तमान तक
बहुत सुन्दर भावप्रणव रचना।
ReplyDeleteबेहतरीन
ReplyDeleteबहुत सुन्दर मन के जज़बातों को शब्दांकित किया है आपने।
ReplyDeleteजीवन मूल्यों से सनी भावों से सिक्त बेहतरीन रचना
ReplyDeleteअनूठापन है रचना में , बधाई आपको !
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