Tuesday 29 September 2015

स्त्री प्रेम में क्यों कर कुलटा कहलाई ..

स्त्री ने लिखा
विश्वास
बेटी कहलाई।

स्त्री ने  लिखा
स्नेह
बहन कहलाई।

स्त्री ने  लिखा
समर्पण
पत्नी  कहलाई।

स्त्री ने  लिखा
ममता
माँ कहलाई।

स्त्री ने  लिखा
प्रेम !
तन गई
भृकुटियाँ,
उठ गई उंगलियाँ कई,
कुलटा कहलाई।

विश्वास
स्नेह
समर्पण
और ममता
प्रेम से इतर तो नहीं
फिर
स्त्री प्रेम में
क्यों कर
कुलटा कहलाई।


मैं धरती- पुत्र मंगल हूँ...

मैं धरती- पुत्र
मंगल हूँ
और मानव,
तुम भी तो
धरती- पुत्र ही हो।

फिर तो
मेरा और तुम्हारा |,
रक्त -सम्बन्ध
ही हुआ ना।


मैं प्रवाहित होता हूँ
तम्हारी रगों में
रक्त बन कर ,
रक्त संबंधों को
मजबूत करता हुआ।

ओज- पूर्ण


व्यक्तित्व देता हूँ मैं |
तुम्हारे भीतर एक
उर्जा का.
शक्ति का संचार कर।

जब भी आता हूँ किसी


क्रूर ग्रह के घेरे में,
क्रूरता की पराकाष्ठा पार भी
मैं ही कराता हूँ,
तुम्हारे व्यक्तित्व को।

मुझे हंसी
आ जाती है
जब तुम शोर मचाते हो
मंगल पर पानी मिल गया है,
अपने अंदर के पानी को भुला कर।

और सोचता हूँ
ऐसा भी समय आएगा
शायद
जब कहा जायेगा
रहा करता था कभी
इस धरती पर मानव

उसमे भी पानी था
शर्म का
मानवता का ...!

Friday 25 September 2015

क्या अब भी असहाय है राजकुमारियाँ ..


कैसी है
अंधेर नगरी यह,
भेड़िये घूमते हैं
दिन -दिहाड़े यहाँ ।

सुना था कभी
भेड़िये की मौत ही
खींच लाती है उसे
नगर की ओर ।

जमाना बदला है
या कहावत
 शिकार के लिए आते है यहाँ,
अब ये भेड़िये,
होते हैं पोषित
 राक्षसों के महलों में।

राजकुमार,
राजकुमार रहे ही कहाँ
लगता है झुक गए हैं  वह
राक्षसों के आगे
लगे हैं भेड़ियों के सुर में सुर मिलाने।

तो क्या अब भी असहाय  है
राजकुमारियाँ !
क्या इंतजार है अब भी उनको
किसी राजकुमार का ?

नहीं !
उसे नहीं है  इंतज़ार किसी
राजकुमार का,
अब  मशाल ले ली है उन्होंने
हाथों में अंपने
चल पड़ी है अपना मार्ग
खुद ही प्रशस्त करने।





Saturday 19 September 2015

रुदाली


रुदाली जिसे सिर्फ सुना,
पढ़ा है
कभी देखा नहीं ...

कभी
उसको सोचती हूँ,
उतरती हुई पाती हूँ
 कहीं अपने भीतर ही।

उसका रुदन, क्रंदन,
अनवरत बहते आंसू
कहीं से भी झूठे नहीं
लगते ...

क्या वह
वह अभिजात्य वर्ग की
लाश पर रुदन
करती है ...!
नहीं,
वह तो उनके दिए
क्रूर दंश पर रोती है।

 उसका
क्रंदन और भी तेज़
हो जाता है
जब लुटी अस्मत दिखाई दे
जाती है
लाश में बेटी की !

कभी मैं सोचती हूँ,
क्या रुदाली सिर्फ एक
व्यक्तित्व ही है ...!

एक भावना नहीं है क्या !
जो कहीं न कहीं .
निवास करती है हमारे भीतर भी।

क्यूँ कि अक्सर
हम भी
अपने दुखों को ही रो रहे
होते है .
दूसरों की  लाशों पर।

Thursday 17 September 2015

बिखरे हुए अक्षर चुन कर...

बिखरे हुए
अक्षर
चुन कर
बना दिए जाते हैं
मन चाहे
शब्द ...
मनचाहे शब्दों की
कड़ी
बुन देती है
वाक्य की जंजीर...
इस जंजीर में
भरे जाते हैं
भावों के रंग...
और बन जाती है
विभिन्न रंगों के
भाव भरी
एक रचना...

Monday 7 September 2015

हंसे या मुस्कुराएं...

जिन्दगी सम्भली सी
बंधी है
एक नियत  दायरे में ,
या
खुल कर
बिखरने को आतुर है ।

चुप रहें ,
बात करें ,
हंसे या
मुस्कुराएं....

सही राह
चलते रहना है
या
नई पगडंडियां भी
आजमाना है ।

बदहवास सी
भटकन ही तो है
यह जिंदगी ।