Friday 22 May 2015

एक चिराग मुहब्बत का ..


एक चिराग मुहब्बत का 
जो जलाया था हमने, 
ना बुझ पाया दुनिया की 
नफरतों की आँधियों से ...

हम मिले या ना मिलें कभी 
रहेगा जहाँ भी चिराग,
रोशनी देता रहेगा..!!







Wednesday 20 May 2015

कैसा है मानव जो बना है दानव..

नभ है उदास क्यूँ ,
क्यूँ उदास है
देवी -देवता ,
चुप  हैं दीप
बुझी क्यूं दीपमाला।

सोचे हैं सभी
क्या सोच के यह धरा बनाई ,
धरा तो बनाई
ये प्राणी  क्यूं बनाये।

प्राणी तो बनाये ,
फिर मानव को
सर्वश्रेष्ठ क्यों बनाया।

बन सर्वश्रेष्ठ मानव
भूला मानवता ही ,
हृदय पाषाण बनाया।

बना पाषाण सा
पूजता भी पाषाण को
कैसा है मानव 
जो बना है दानव। 
अब यही सोचे हो उदास
देवी -देवता।

Sunday 17 May 2015

जिंदगी जैसे चौसर की बिसात ...

जिंदगी जैसे
चौसर की बिसात !

सभी के
अपने -अपने खाने है
अपनी -अपनी गोटियां है।
इंतज़ार है तो पासों के
गिर के बिखरने का।

पासों के बिखरने तक
अटकी रहती है सांसे।
कौन  जा रहा है आगे
और
कितने  घर आगे बढ़ना है।

पीछे रह ,
हार जाने का भय भी है।
आगे बढ़ने की होड़ में
किसी को पीछे
 धकेल भी  देना है।

हर कदम  पर है
प्रतियोगिता।
भय भी है
जीत के उन्माद में
पलटवार का।

फिर भी !
जिंदगी तो जिंदगी है।
चाहे चौसर की बिसात ही क्यों न हो ,
चलते जाना ही है ,
एक दिन तो मंजिल मिलेगी ही।

( चित्र गूगल से साभार )

Thursday 7 May 2015

अब चाँद को छूने की हसरत नहीं...

बचपन के
आँगन में
पानी भरी थाली में
चाँद देखना
जैसे आँगन में ही
चाँद उतर आया हो

नन्ही हथेलियों से
चाँद को छूने की चेष्टा में
पानी के हिल जाने से
चाँद का भी हिल जाना
और नन्हे  से  मन का खिल जाना..

खिले मन से
पानी को हथेली से
छपछपाना...

पानी बिखरा या
चाँद थाली से बाहर हुआ
क्या मालूम...!

शायद चाँद ही
क्योंकि
चाँदनी नन्हे गालों पर
खिल उठती...

समय बदला
आँगन भी वहीं है
पानी की थाली में
चाँद भी वही है..

अब चाँद को
छूने की हसरत नहीं
कि बिखर जाने का भय है
अब तो
अंजुरी में भर कर
रखने की तमन्ना है....

Tuesday 5 May 2015

माँ हो गई है कुछ कमजोर...

जीवन की
सांध्य बेला में
माँ हो गई है
शरीर से कुछ कमजोर
और याददाश्त से भी।

उसे नहीं रहता अब
कुछ भी याद  ,
तभी तो
वह भूल गई 
मेरी सारी गलतियां ,
शरारतें।

माँ को कहाँ
याद रहता है अपने बच्चों की
गलतियाँ।

 लेकिन उसे याद है
मेरी सारी
पसन्द -नापसन्द ,
नहीं भूली वह मेरे लिए
मेरा पसंदीदा खाना पकाना।

समय के साथ
कमज़ोर पड़ी है नज़र
लेकिन
बना देती है स्वेटर अब भी।

हाँ स्वेटर !
जिसे बनाने में कुछ ही दिन
लगाती थी वह ,
अब कुछ साल लग गए।

अनमोल धरोहर सी है
मेरे लिए वह स्वेटर।

माँ कमजोर तो हो गई  है ,
लेकिन अब भी
 मेरे आने की खबर पर
धूप में भी मेरे इंतज़ार में
 खड़ी रहती है दरवाज़े पर ।

मैं भी एक माँ ही हूँ
लेकिन नहीं हूँ
अपनी माँ सी प्यारी -भोली सी
और क्षमाशील।

सोचती हूँ
संसार की कोई भी माँ
नहीं होती है
अपनी माँ से बेहतर।