नभ है उदास क्यूँ ,
क्यूँ उदास है
देवी -देवता ,
चुप हैं दीप
बुझी क्यूं दीपमाला।
सोचे हैं सभी
क्या सोच के यह धरा बनाई ,
धरा तो बनाई
ये प्राणी क्यूं बनाये।
प्राणी तो बनाये ,
फिर मानव को
सर्वश्रेष्ठ क्यों बनाया।
बन सर्वश्रेष्ठ मानव
भूला मानवता ही ,
हृदय पाषाण बनाया।
बना पाषाण सा
पूजता भी पाषाण को
कैसा है मानव
जो बना है दानव।
अब यही सोचे हो उदास
देवी -देवता।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (22-05-2015) को "उम्र के विभाजन और तुम्हारी कुंठित सोच" {चर्चा - 1983} पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
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सुन्दर !
ReplyDeleteउत्तर दो हे सारथि !
भूला मानवता ही ,
ReplyDeleteहृदय पाषाण बनाया।
बना पाषाण सा
पूजता भी पाषाण को
बहुत सुन्दर व सार्थक बात...वाह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह