Thursday 28 March 2013

अब तू क्यूँ मचलता है मन .....


मन फिर मचल गया
जरा मुड कर तो
 देख कोई है शायद
 अभी भी तेरे इंतज़ार में ...

नज़र आया 
दूर तक वीराना ही 
कोई तो पुकारेगा
 इस वीराने में ...

 एक बार फिर 
से तो मुड कर देख जरा 
मन ...

अब तू क्यूँ मचलता है 
कौन है 
जो तेरा इंतज़ार करे ,
तुझे पुकारे .....

तूने ही तो तोड़ डाले थे 
सारे तार ,
सारे राह उलझा दिए थे 
अब कौनसी राह ढूंढता है ...

खिले फूलों 
को तूने ही बिखराया था ,
अब किस बहार का इंतज़ार है तुझे ... 

अब तू क्यूँ मचलता है 
मन 
किसको पुकारता है अब
 इस वीराने में ........

Friday 22 March 2013

तलाश फिर भी जारी है.......

कितने चेहरे
हैं आस -पास
इन चेहरों की भीड़ में
तलाश ,
एक अपने से
जाने पहचाने चेहरे की

तलाश
एक पहचानी सी
मुस्कान की
जो मिले ,लिये
आँखों में वही जान -पहचान

तलाश
पूरी कब होती है
समय बदलता है
चेहरे बदल जाते हैं ...

तलाश
फिर भी कायम है
इस
बदलते समय में ,
एक अपनेपन की
उन्हीं बदले हुए चेहरों में

कभी-कभी  यह
तलाश
कभी भी ख़त्म नहीं होती

तलाश
खत्म भी कैसे हो
जब वही जाने -पहचाने
चेहरे
मिल कर भी नहीं मिलते ,
फिर रहे हों अजनबियत
का मुखोटा पहने ......

तलाश
फिर भी जारी है
इंतजार भी है उन
अजनबियत के
मुखोटों के उतरने का .....




Saturday 16 March 2013

मंदिर की आरती



एक किसान जो रोज़
  संध्या को
 अपने बैलों के साथ
मंदिर के पास से गुजरता ...........

अक्सर पुजारी को
दीपक करते हुए देखता तो
 मन उसका भी करता
के हाथ जोड़ दूँ ,
पर तभी
अपनी फटेहाल हालत और
मंदिर के गुम्बंद पर
सोने का कलश
देख कर अपने मुहं और कंधे टेढ़े
से कर ,
चल देता ...............

 एक दिन उसके गुस्से की कोई
सीमा न रही
जब मंदिर की आरती
के समय ,
वहां से आते ढोल -नगाड़ों
के शोर से उसके
बैल बिदक कर भाग छूटे .........

नाराज़ हो पुजारी से पूछ बैठा ,ये कैसा
शोर मचाया है ,
मेरे तो बैल ही बिदक गए ............

पुजारी बोला
हे पुत्र , आरती उतार रहें है !
अब किसान खीझ उठा
ओह ...! अरे भाई,
पहले आरती को ऊपर चढाते ही
क्यूँ हो जो ढोल -नगाड़े बजा कर
उतारा जाये ,
आहिस्ता से भी तो पुकार सकते हो ........

पुजारी ने उसे भगवान की
 महिमा समझाई ,
दान -पुन्य की बात भी
 कुछ कान में डाली
 किसान तो  कुछ ना समझा पर उसने
 पुजारी  को खूब समझाया   ...........

देखो भाई ...!जब एक किसान
अपने खेत में बीज बोता है तो
ना जाने कितने प्राणियों के
पेट भरता है ,
हजारों चींटियाँ कितने ही पंछी
 और भी कई जीव जन्तुं
अपना हिस्सा अपने आप ही ले लेते ...

मेरी पसीने की कमाई
तुम्हारे भगवान पर
 क्यूँ लुटाऊं,
इसने मुझे क्या दिया ...!
इसकी आरती ने तो
मेरे बैल भी भगा दिए वो
अब कहाँ से ढूंढ़ कर लाऊं .........!


Wednesday 13 March 2013

तुम्हारा नाम सागर किनारे लिखा था मैंने ....



तुम्हारा नाम 
 पत्थर पर नही लिखा था मैंने 
पत्थरों पर लिखे नाम
वक्त के साथ धुंधला जाते है .........

तुम्हारा नाम ,
सागर किनारे लिखा था मैंने 
सागर के किनारे 
की रेत पर लिखे नाम 
कभी नहीं मिटते .......

 लहरों के साथ सागर 
में ही  मिल जाते है 
सागर किनारे लिखे नाम ,
बहते रहते है
 हर लहर के साथ 
न घुलते है न  गलते है ..

शायद इसी लिए ,
सागर का पानी खारा होता है ..

आंसुओं से 
जो लिखे होते है
सागर किनारे लिखे नाम ...

कभी अंजुरी भर कर देखोगे ,
किसी लहर पर किसी 
किरण को 
झिलमिलाती देखोगे
 तुम्हे 
लिखा नज़र आएगा 
तुम्हारा नाम .........

Saturday 9 March 2013

मैं शिव ...

मैं शिव ...!
तुम्हारे हृदय में 
बसने वाला ...
तुम्हारे हृदय के 
हर तार 
हर भाव को समझने वाला ......

रे मानव ...!
तू तो जानता है 
बिना मेरे या 
बिना शिव के ,
तुम्हारी देह मात्र 
शव ही तो है ...!

मैं उलझ जाता हूँ 
जब तू  चला आता है 
अपने अंतःकरण में 
लिए उलझनों का 
अम्बार ...

तब 
शीतल जल और दुग्ध 
नहीं कर पाते मुझे शीतल 
शांत ही मन जब ना हो 
तुम्हारा ...

मन शांत भी कैसे हो तुम्हारा 
मन बैठे मुझी को तुम 
करते को रखने से इंकार ,
बसाये रखते हो 
उलझनों का अम्बार ...

एक बार तू 
मुझसे बतिया कर 
मुझी से कह अपने मन 
की बात ..
मैं हर लूँगा तुम्हारा हर 
दुःख -संताप ...

रे मानव ...!
तुम्हारे इस संकीर्ण हृदय में 
केवल शिव ही
 बस सकता है  या फिर 
मायावी उलझने ...

शिव है तो तू है 
नहीं तो तू शव के 
सामान ही है ...
.




Friday 8 March 2013

क्यूंकि स्त्री मात्र देह ही तो है.......


स्त्री
मात्र देह के सिवा
कुछ भी नहीं

और पुरुष ...!
एक सोच है
एक विचार है ...

यह सोच
यह विचार
स्त्री को घेरता गया ..

स्त्री , पुरुष को
सोचती-विचारती
उसी की
सोच को सोचती
ओढती , बिछाती .
रंग में रंगती ...!

हर उम्र का एक अलग रंग
एक अलग सोच

जाने कितनी
सदियाँ बीत गयी
सोचते -विचरते ..

स्त्री को
 पता ही ना चला
इस मकड़ -जाल ,
सोच-विचार ने कब उसे
घेर लिया ...

सोच - विचार की
ऊँगली पकड़ने ,
हाथ थामते
कभी काँधे का सहारा
ढूंढते -ढूंढते ,
यह देह ना जाने कब
कंधों पर सवार  हो चल
पड़ती है ...

क्यूंकि
स्त्री मात्र देह ही तो है
और पुरुष ही तो
विचार है
और सोच भी ...






Wednesday 6 March 2013

यही वादा था तुम्हारा ..


 तेरे शहर में
अजनबी सी खड़ी हूँ 
मैं,  आज 
लिए एक अजनबियत का 
अहसास  

 उन हवाओं में
वो महक  अब न रही
जिन हवाओं की महक 
लिए एक बार फिर चली 
आई हूँ तेरे शहर में 

 कभी तुम्हारे 
साथ गुज़रा करती थी ,
वे गलियां भी अजनबी
सी ही लगी आज मुझे ..

बन अजनबी सी खड़ी हूँ 
उसी दरख्त के नीचे...

ये दरख्त गवाह है हमारे 
प्रेम  का ,
जहाँ हम मिला करते थे 
अक्सर ,
आखिरी बार भी यहीं मिले थे 

तुम्हारा वादा 
हाँ ...!
तुमने तो वादा किया था 
तुम्हारा  प्रेम  कभी कम ना होगा 
चाहे मिले या ना मिल पायें कभी ...

यह दरख्त गवाह है 
अगर किसी दिन भुला दिया 
तुमने , मुझे ..
इसकी पत्तियां पीली पड़ जाएगी 
यही वादा था तुम्हारा ..

देखो आज इसी दरख्त के
नीचे खड़ी हूँ ,
इसकी पीली पत्तियां समेटती .......