जिंदगी जैसे
चौसर की बिसात !
सभी के
अपने -अपने खाने है
अपनी -अपनी गोटियां है।
इंतज़ार है तो पासों के
गिर के बिखरने का।
पासों के बिखरने तक
अटकी रहती है सांसे।
कौन जा रहा है आगे
और
कितने घर आगे बढ़ना है।
पीछे रह ,
हार जाने का भय भी है।
आगे बढ़ने की होड़ में
किसी को पीछे
धकेल भी देना है।
हर कदम पर है
प्रतियोगिता।
भय भी है
जीत के उन्माद में
पलटवार का।
फिर भी !
जिंदगी तो जिंदगी है।
चाहे चौसर की बिसात ही क्यों न हो ,
चलते जाना ही है ,
एक दिन तो मंजिल मिलेगी ही।
( चित्र गूगल से साभार )
चौसर की बिसात !
सभी के
अपने -अपने खाने है
अपनी -अपनी गोटियां है।
इंतज़ार है तो पासों के
गिर के बिखरने का।
पासों के बिखरने तक
अटकी रहती है सांसे।
कौन जा रहा है आगे
और
कितने घर आगे बढ़ना है।
पीछे रह ,
हार जाने का भय भी है।
आगे बढ़ने की होड़ में
किसी को पीछे
धकेल भी देना है।
हर कदम पर है
प्रतियोगिता।
भय भी है
जीत के उन्माद में
पलटवार का।
फिर भी !
जिंदगी तो जिंदगी है।
चाहे चौसर की बिसात ही क्यों न हो ,
चलते जाना ही है ,
एक दिन तो मंजिल मिलेगी ही।
( चित्र गूगल से साभार )
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, एहसास हो तो गहराई होती ही है ....
ReplyDelete, मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
चौसर के रूप में जिंदगी। एक सुन्दर परिकल्पना।
ReplyDeleteसच कहा आपने आदरणीया
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