कैसी है
अंधेर नगरी यह,
भेड़िये घूमते हैं
दिन -दिहाड़े यहाँ ।
सुना था कभी
भेड़िये की मौत ही
खींच लाती है उसे
नगर की ओर ।
जमाना बदला है
या कहावत
शिकार के लिए आते है यहाँ,
अब ये भेड़िये,
होते हैं पोषित
राक्षसों के महलों में।
राजकुमार,
राजकुमार रहे ही कहाँ
लगता है झुक गए हैं वह
राक्षसों के आगे
लगे हैं भेड़ियों के सुर में सुर मिलाने।
तो क्या अब भी असहाय है
राजकुमारियाँ !
क्या इंतजार है अब भी उनको
किसी राजकुमार का ?
नहीं !
उसे नहीं है इंतज़ार किसी
राजकुमार का,
अब मशाल ले ली है उन्होंने
हाथों में अंपने
चल पड़ी है अपना मार्ग
खुद ही प्रशस्त करने।
बहुत सुंदर
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (27-09-2015) को "सीहोर के सिध्द चिंतामन गणेश" (चर्चा अंक-2111) (चर्चा अंक-2109) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'