मैं धरती- पुत्र
मंगल हूँ
और मानव,
तुम भी तो
धरती- पुत्र ही हो।
फिर तो
मेरा और तुम्हारा |,
मेरा और तुम्हारा |,
रक्त -सम्बन्ध
ही हुआ ना।
मैं प्रवाहित होता हूँ
तम्हारी रगों में
रक्त बन कर ,
तम्हारी रगों में
रक्त बन कर ,
रक्त संबंधों को
मजबूत करता हुआ।
मजबूत करता हुआ।
ओज- पूर्ण
व्यक्तित्व देता हूँ मैं |
तुम्हारे भीतर एक
उर्जा का.
शक्ति का संचार कर।
जब भी आता हूँ किसी
क्रूर ग्रह के घेरे में,
क्रूरता की पराकाष्ठा पार भी
मैं ही कराता हूँ,
तुम्हारे व्यक्तित्व को।
मुझे हंसी
आ जाती है
जब तुम शोर मचाते हो
मंगल पर पानी मिल गया है,
अपने अंदर के पानी को भुला कर।
और सोचता हूँ
ऐसा भी समय आएगा
शायद
जब कहा जायेगा
रहा करता था कभी
इस धरती पर मानव
उसमे भी पानी था
शर्म का
मानवता का ...!
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (30-09-2015) को "हिंदी में लिखना हुआ आसान" (चर्चा अंक-2114) (चर्चा अंक-2109) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
शर्म और मानवता के पानी की आवश्यकता बहुत ज्यादा है.
ReplyDeleteसुंदर रचना.