Sunday, 12 April 2015

नज़रें शक से टटोलती है क्यों फिर..

सरहदों में बँटे देश !
इस पार मैं ,
उस पार भी मैं ही तो हूँ।

उधर के सैनिक मेरे ,
इधर के सैनिक भी मेरे ही हैं।
एक साथ उठते कदम
बंदूक - राइफल सँभालते।

दिलों में छुपा है कही
किसी कोने में दबा प्यार अब भी ,
नज़रें शक से टटोलती है
क्यों फिर।

दरवाज़ा उधर से बंद हुआ ,
दरवाज़ा बंद यहाँ से भी तो किया गया !
रह गई तो बस कंटीली बाड़
बीच ही में
दिलों को बेधती हुई।

बेबस झांकती रही
मेरी नज़र वहां से ,
झांक तो यहाँ से भी रही थी
 मैं बेबस सी। 

2 comments:

  1. बैसाखी और अम्बेदकर जयन्ती की हार्दिक मंगलकामनाओं के आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार (14-04-2015) को "सब से सुंदर क्या है जग में" {चर्चा - 1947} पर भी होगी!
    --
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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