प्रेम
तुम जीत हो
लेकिन
हारा है हर कोई
तुम्हें पाने
की चाहत में...
फिर
मैं क्यों कर जीत पाती ...
प्रेम
जहाँ तुम
वही मेरा डेरा
तुम्हारे कदमों
को पहचान
चली आती हूँ...
ढूंढ ही लेती हूँ
तुम्हें
साथ है सदा का,
जैसे
परछाई...
क्योंकि प्रेम
तुम
प्रकाश हो
अंधकार नहीं....
तुम जीत हो
लेकिन
हारा है हर कोई
तुम्हें पाने
की चाहत में...
फिर
मैं क्यों कर जीत पाती ...
प्रेम
जहाँ तुम
वही मेरा डेरा
तुम्हारे कदमों
को पहचान
चली आती हूँ...
ढूंढ ही लेती हूँ
तुम्हें
साथ है सदा का,
जैसे
परछाई...
क्योंकि प्रेम
तुम
प्रकाश हो
अंधकार नहीं....
प्रेम बस होता है .सुन्दर रचना है उपासना सियाग जी .
ReplyDeleteप्रेम में हार जीत कहाँ...प्रेम हार कर भी जीत है..बहुत सुन्दर प्रस्तुति..
ReplyDeleteसुन्दर रचना
ReplyDeleteबहुत सुंदर .
ReplyDeleteनई पोस्ट : उन्मुक्त परिंदे
प्रेम तुम प्रहाश हो
ReplyDeleteअन्धकार नहीं ........बहुत सुन्दर
प्रेम
ReplyDeleteतुम जीत हो
लेकिन
हारा है हर कोई
तुम्हें पाने
की चाहत में...
ध्रुवसत्य।
सुंदर रचना।
सुन्दर व सार्थक प्रस्तुति..
ReplyDeleteशुभकामनाएँ।
मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
प्रेम के प्रकाश का छुप के रह पाना भी कहाँ संभव होता है ...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना ...
बहुत सुंदर रचना
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