Thursday, 30 April 2015

स्त्री अडिग ही रही सदैव...

स्त्री
सदैव खड़ी कर दी जाती है
सवालों के कटघरे में

जवाब को उसके
सफाई मान लिया जाता है
तो
खामोशी को उसका
जुर्म...

तीर जैसे सवालों को
सुनती, सहती है वह
अडिग ,
मुस्कराते हुए ...

स्त्री अडिग ही रही
सदैव
लेकिन
असहनीय है धरा के लिए
स्त्री का
यूँ मुस्कुरा कर
सहन करना ।

विदीर्ण हो जाता है
हृदय ,
और डोल जाती है धरती
आ जाता है
भूचाल....!

4 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (02-05-2015) को "सारी दुनिया का बोझ हम उठाते हैं" (चर्चा अंक-1963) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    श्रमिक दिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
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  2. धरती कब तक सहेगी इंसान की चालाकियां ...
    भावपूर्ण रचना ...

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  3. नहुत खूब सियाग जी ...एक बेहतरीन कृति....

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  4. जननी, जन्मभूमि, जगद्जननी को नमन

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