प्रेम से
नाराजगी कैसी
जब प्रेम हो
वट वृक्ष सा...
नाराजगी कैसी
जब प्रेम हो
वट वृक्ष सा...
शीतल घनेरी
छाँव सी मुस्कान,
सरसराता ठंडा
झोंका सी
उसकी बातें ।
छाँव सी मुस्कान,
सरसराता ठंडा
झोंका सी
उसकी बातें ।
फैला हुआ हो
वजूद दूर तक
जैसे वट वृक्ष की जड़ें ।
वजूद दूर तक
जैसे वट वृक्ष की जड़ें ।
मुरझाई लता मैं
बिन प्रेम
फिर
नाराजगी क्यों कर
ऐसे प्रेम से ।
बिन प्रेम
फिर
नाराजगी क्यों कर
ऐसे प्रेम से ।
बहुत सुंदर .
ReplyDeleteनई पोस्ट : फिर कोई कहानी
प्रेम में मनुहार सो ठीक ... नाराजगी तो हो ही नहीं सकती ...
ReplyDeleteनहीं कोई नाराज़गी नहीं हैं प्रेम से ............. प्रेम तो जीवन जीने की कला का नाम हैं
ReplyDeletehttp://savanxxx.blogspot.in
भारतीय नववर्ष एवं नवरात्रों की हार्दिक मंगलकामनाओं के आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल सोमवार (23-03-2015) को "नवजीवन का सन्देश नवसंवत्सर" (चर्चा - 1926) पर भी होगी!
ReplyDelete--
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत खूब !!
ReplyDeleteसच कहा हैं.मगर हर कोई इसके समझता भी नही.
ReplyDeleteप्रेम में नाराज़गी कैसी
बहुत सुन्दर। प्रेम से संबन्धित भावों को किसी सीमा में बांधना कहाँ संभव है। बल्कि हर बार ये नये आयाम तक पहुँचाता है।
ReplyDeleteकोटि कोटि नमन कि आज हम आज़ाद हैं
अपरिहार्य प्रत्याशा है नाराज़गी प्रेम की....प्रेम होने का यही तो प्रमाण है।
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