तुम्हें सोचा
तो सोचा,
देखूं एक बार तुम्हें।
लेकिन
जाने कहाँ
छुप गए हो
तुम तो कहीं !
फिर देखूं तो
कहाँ देखूं ,
कहाँ खोजूँ तुम्हें ।
बिखरा तो है
बेशक़
तुम्हारा वजूद,
यहाँ-वहां।
मूर्त रूप
चाहूँ देखना तुम्हें,
फिर
कहाँ देखूँ !
खोजना जो चाहा
चाँद में तुम्हें।
सोचा मैंने चाँद को
तुम भी तो
देखते होंगे।
तुम चाँद में भी नहीं थे
लेकिन,
क्यूंकि
अमावस की रात सी
तकदीर है मेरी।
तो सोचा,
देखूं एक बार तुम्हें।
लेकिन
जाने कहाँ
छुप गए हो
तुम तो कहीं !
फिर देखूं तो
कहाँ देखूं ,
कहाँ खोजूँ तुम्हें ।
बिखरा तो है
बेशक़
तुम्हारा वजूद,
यहाँ-वहां।
मूर्त रूप
चाहूँ देखना तुम्हें,
फिर
कहाँ देखूँ !
खोजना जो चाहा
चाँद में तुम्हें।
सोचा मैंने चाँद को
तुम भी तो
देखते होंगे।
तुम चाँद में भी नहीं थे
लेकिन,
क्यूंकि
अमावस की रात सी
तकदीर है मेरी।
बहुत सुंदर
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (01-11-2015) को "ज़िन्दगी दुश्वार लेकिन प्यार कर" (चर्चा अंक-2147) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
कहां खोजूं तुम्हें। बहुत ही शानदार रचना।
ReplyDeleteबहुत सुंदर एवं भावपूर्ण
ReplyDeleteबहुत सुंदर एवं भावपूर्ण
ReplyDeleteवाह - बहुत खूब वाह - बहुत खूब
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