चालीस पार की औरतें
जैसे हो
दीमक लगी दीवारें !
चमकदार सा
बाहरी आवरण,
खोखली होती
भीतर से
परत -दर -परत।
जैसे हो
कोई विशाल वृक्ष,
नीड़ बनाते हैं पंछी जिस पर
बनती है
आसरा और सहारा
असंख्य लताओं का
लेकिन
गिर जाये कब चरमरा कर
लगा हो घुन जड़ों में।
जीवन में
क्या पाया
या
खोया अधिक !
सोचती,
विश्लेषण करती।
बाबुल के घर से
अधिक हो गई
पिया के घर की,
तलाशती है जड़ें
फिर भी,
चालीस पार की औरतें !
जैसे हो
दीमक लगी दीवारें !
चमकदार सा
बाहरी आवरण,
खोखली होती
भीतर से
परत -दर -परत।
जैसे हो
कोई विशाल वृक्ष,
नीड़ बनाते हैं पंछी जिस पर
बनती है
आसरा और सहारा
असंख्य लताओं का
लेकिन
गिर जाये कब चरमरा कर
लगा हो घुन जड़ों में।
जीवन में
क्या पाया
या
खोया अधिक !
सोचती,
विश्लेषण करती।
बाबुल के घर से
अधिक हो गई
पिया के घर की,
तलाशती है जड़ें
फिर भी,
चालीस पार की औरतें !
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" मंगलवार 17 नवम्बबर 2015 को लिंक की जाएगी............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद आपका .
Deleteहार्दिक धन्यवाद आपका .
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद आपका .
ReplyDeletesuprr like !!!
ReplyDeleteसुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार..
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका इंतजार....
अद्भुत और सटीक ....निशब्द
ReplyDeleteशानदार और मार्मिक रचना की प्रस्तुति।
ReplyDeleteसच है ..हम भी चालीस पार हो गए ...
ReplyDeleteसच है आप की रचना । बहुत अच्छी ।
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना .वाह
ReplyDeleteउपासना जी बेहद सुंदर भावपूर्ण रचना .
ReplyDeleteकभी मेरे ब्लॉग पर भी अवलोकनार्थ पधारें .
https://shortncrispstories.blogspot.in/2015/04/1.html