Tuesday, 23 December 2014

एक पाती जाने पहचाने अनजाने के नाम


एक बात जो
तुमसे कही मैंने ,
बन कर अपनी सी।
वह बात तो तुमने भी
सुनी होगी।

या
अनसुनी कर दी…
कभी कुछ
पलट कर जवाब भी नहीं दिया।

बने रहे
बेगाने से , अनजाने से
फिर मैं क्यों कहूँ
तुम जाने -पहचाने हो !

कोई तो परिचय ,
पहचान तुम्हारा भी तो होगा
कि
तुम्हें अपना सा कह सकूँ !






11 comments:

  1. अनजाना सा
    जाना सा
    पहचाना सा

    लफ्ज़ ही पहचान हैं
    तुम्हारी
    अक्सर

    जिसका इंतज़ार
    मैं भी करती हूँ
    इसकी / उसकी
    हर पोस्ट पर


    कि शायद कभी
    मुझे भी नजर आ जाये
    एक अक्स
    जो कहता हैं मुझे
    अनजाना सा पहचाना सा
    पर अब लगने लगा हैं
    अपना सा
    पहचाना सा
    एक दिन तो मेरी नजर में आओगे
    कब तक अपने लफ्जों से चेहरे को छुपाओगे :)

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  2. सुन्दर लिखा आपने उपासना जी

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    1. आपका लेखन ज्यादा सुन्दर है जी , नीलिमा जी
      :)) आभार

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  3. क्या बात है जी ....लाजवाब हैं दोनों रचनाएँ

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  4. बहुत सुंदर -- मन को छूती अभिव्यक्ति

    सादर
    दुनियां की सभी माओं के आंसू ----

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  5. सुन्दर कविता मन की गहराइयों से लिखी! आदरणीया उपासना जी!
    धरती की गोद

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  6. बने रहे
    बेगाने से , अनजाने से
    फिर मैं क्यों कहूँ
    तुम जाने -पहचाने हो !
    बहुत खूब

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