एक बात जो
तुमसे कही मैंने ,
बन कर अपनी सी।
वह बात तो तुमने भी
सुनी होगी।
या
अनसुनी कर दी…
कभी कुछ
पलट कर जवाब भी नहीं दिया।
बने रहे
बेगाने से , अनजाने से
फिर मैं क्यों कहूँ
तुम जाने -पहचाने हो !
कोई तो परिचय ,
पहचान तुम्हारा भी तो होगा
कि
तुम्हें अपना सा कह सकूँ !
अनजाना सा
ReplyDeleteजाना सा
पहचाना सा
लफ्ज़ ही पहचान हैं
तुम्हारी
अक्सर
जिसका इंतज़ार
मैं भी करती हूँ
इसकी / उसकी
हर पोस्ट पर
कि शायद कभी
मुझे भी नजर आ जाये
एक अक्स
जो कहता हैं मुझे
अनजाना सा पहचाना सा
पर अब लगने लगा हैं
अपना सा
पहचाना सा
एक दिन तो मेरी नजर में आओगे
कब तक अपने लफ्जों से चेहरे को छुपाओगे :)
सुन्दर लिखा आपने उपासना जी
ReplyDeleteआपका लेखन ज्यादा सुन्दर है जी , नीलिमा जी
Delete:)) आभार
क्या बात है जी ....लाजवाब हैं दोनों रचनाएँ
ReplyDeleteबहुत सुंदर -- मन को छूती अभिव्यक्ति
ReplyDeleteसादर
दुनियां की सभी माओं के आंसू ----
बहुत सुन्दर..
ReplyDeleteWaah bahut sundar
ReplyDeleteसुन्दर कविता मन की गहराइयों से लिखी! आदरणीया उपासना जी!
ReplyDeleteधरती की गोद
kiska hain yeh tumko intzaar .......... upasna
ReplyDeleteबहुत खूब
ReplyDeleteबने रहे
ReplyDeleteबेगाने से , अनजाने से
फिर मैं क्यों कहूँ
तुम जाने -पहचाने हो !
बहुत खूब