तुम अब कहीं नहीं
तुमने पूछा
तुम कहाँ हो !
तुम अब कहीं नहीं।
तुम्हें भूले हुए
अब कोई याद बाकी नहीं।
तुम्हें तो मैंने
उसी वर्ष भुला दिया था
जिसमे तेरहवां महीना था।
जब फरवरी में
तीसवीं तारीख आई थी।
जिस वर्ष
तीन सौ पैंसठ की बजाय
तीन सौ सड़सठ दिन थे।
फिर भी पूछते हो कि
तुम कहाँ हो ?
समय की ताक पर रिश्ते ...बहुत बढ़िया
ReplyDeleteवाह..बहुत भावपूर्ण रचना...
ReplyDeleteबेहतरीन रचना , कुछ बेहतर अलग सी , उपासना जी धन्यवाद !
ReplyDeleteनवीन प्रकाशन - जिंदगी हँसने गाने के लिए है पल - दो पल !
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कितना असंभव है सब-कुछ!
ReplyDeleteबहुत सुंदर एवं भावपूर्ण रचना.
ReplyDeleteनई पोस्ट : दहकते शोलों पर जिंदगी
भाव पूर्ण सुन्दर रचना..
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteएक नज़र :- हालात-ए-बयाँ: ''इंसानियत''
रिश्ते ...
ReplyDeleteकहाँ भूलते हैं पल ... बहुत ही भावपूर्ण ...
इस बार तो हद कर दी आपने ! ...... :-)
ReplyDeleteकिसी खोये हुए को, कहीं अस्तित्व मे होने का भान कराके .....
उत्तम रचना, शुभकामनाएँ !
हार्दिक धन्य वाद जी ....क्या आप पहले भी मेरी रचनाये पढ़ते आये हैं ...अपना नाम भी बताते तो मुझे बहुत ख़ुशी होती ..
Deleteनाम तो एक सुविधा मात्र है पहचान के लिए, जो चाहे रख लें..... वैसे अनाम होना भी एक पहचान है ! ....... ,
Deleteआपकी हर रचना का इंतज़ार रहता है .....
कहते रहिए, हम उत्सुकता से सुन रहे हैं !.....
इतनी यादें... फिर भी सवाल. बहुत उम्दा, बधाई.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर..
ReplyDeleteदिल को छू गयी सचमुच...
:-(