पत्थरों के शहर में
मिट्टी की मूरतें है।
अग्नि सी आंधियां
तेज़ाबी बरसातें है।
ना जाने क्यों
न पत्थर पिघलते हैं
और
न ही मिट्टी की मूरतें
भुरभुराती है।
पत्थरों को पिघलने की
चाहत ही ना रही ...
बसंत का इंतज़ार ही नहीं उसे,
तभी तो शायद
मिट्टी की मूरतों में प्राण ही नहीं
या जीने की ही चाह ना रही ।
मिट्टी की मूरतें है।
अग्नि सी आंधियां
तेज़ाबी बरसातें है।
ना जाने क्यों
न पत्थर पिघलते हैं
और
न ही मिट्टी की मूरतें
भुरभुराती है।
पत्थरों को पिघलने की
चाहत ही ना रही ...
बसंत का इंतज़ार ही नहीं उसे,
तभी तो शायद
मिट्टी की मूरतों में प्राण ही नहीं
या जीने की ही चाह ना रही ।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (12-11-2014) को "नानक दुखिया सब संसारा ,सुखिया सोई जो नाम अधारा " चर्चामंच-1795 पर भी होगी।
--
चर्चा मंच के सभी पाठकों को
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत ही संवेदनशील रचना है. अपने परिवेश को देखकर बस यही लगता है.
ReplyDeleteपत्थरों के शहर में
ReplyDeleteमिट्टी की मूरतें है।
अग्नि सी आंधियां
तेज़ाबी बरसातें है।
प्रेम !
तुझे मना लूँ प्यार से !
सुन्दर अभिव्यक्ति! आदरणीया जी, साभार!
ReplyDeleteधरती की गोद
पत्थर को भगवान् मान लेने पर भी कर्म तो करना होगा ... जीबने की चाह तो रखनी ही होगी ...
ReplyDeleteSatya...aisa hi kuch lagta hai duniya dekhkar
ReplyDeletebahut sunder prastuti....ab duniya yahi hai ba
ReplyDeleteबेहतरीन लेखन , धन्यवाद !
ReplyDeleteInformation and solutions in Hindi ( हिंदी में समस्त प्रकार की जानकारियाँ )
कर्म करने से ही भगवान साथ होते है ...
ReplyDeleteबहुत बढ़िया ...
बहुत-सुंदर
ReplyDeleteभावपूर्ण रचना ...
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