कोई है
जो बेनाम है
बनता अनजान है।
क्या जाने
वो रूठा या माना हुआ ,
गुमशुदा है
या आस-पास ही रहता है !
सोचता है
अदृश्य है वह
मुझसे !
क्यूंकि निराकार है वह।
हां शायद
वह निराकार ही है !
लेकिन
अनजान है वह।
एक छवि है
उसकी भी
एक जानी पहचानी सी
जो मेरे अंतर्मन में साकार है।
जो बेनाम है
बनता अनजान है।
क्या जाने
वो रूठा या माना हुआ ,
गुमशुदा है
या आस-पास ही रहता है !
सोचता है
अदृश्य है वह
मुझसे !
क्यूंकि निराकार है वह।
हां शायद
वह निराकार ही है !
लेकिन
अनजान है वह।
एक छवि है
उसकी भी
एक जानी पहचानी सी
जो मेरे अंतर्मन में साकार है।
बेहतरीन अभिव्यक्ति..
ReplyDeleteबेनाम, निराकार अनजाना जो पहचाना जाता है मन की छवि से बस ...
ReplyDeleteबहुत सुंदर लेखन हैं आपका , उपासना जी सदा ही धन्यवाद व इसी तरह आप लिखें व हम आपके लेखन का आनंद लें !
ReplyDeleteI.A.S.I.H ब्लॉग ( हिंदी में समस्त प्रकार की जानकारियाँ )
बहुत बढ़िया..उपासना जी
ReplyDelete☆★☆★☆
एक छवि है उसकी
जानी-पहचानी-सी
जो मेरे अंतर्मन में साकार है !
बहुत सुंदर !
आदरणीया उपासना जी
कविता ऊंचाइयां स्पर्श करती प्रतीत होती है...
साधुवाद !
मंगलकामनाओं सहित...
-राजेन्द्र स्वर्णकार
अन्तर्मन मे सुंदर छवि संग्रहीत :) बेहतरीन !!
ReplyDeleteसुंदर। निराकार का भी एक आकार होता है हमारे मन में।
ReplyDeleteसुन्दर अभिव्यक्ति....
ReplyDeleteबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति !
ReplyDeleteबेटी बन गई बहू
निराकार तो अंतर्मन में ही साकार हो सकता है सुन्दर रचना उपासनाजी
ReplyDeleteSunder abhivyakti.....
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