कोई अब भी
फिक्रमंद चेहरा
ग़मज़दा सा ,
एक दहशत
दिल में लिए घूमता है।
अभी भी तलाश है उसे अपनों की
पहाड़ पर खड़ा है वह ,
आस ले कर
पहाड़ से भी ऊँची।
है असमंजस में वह ,
व्याकुल -व्यथित सा ,
किससे मांगे
और
क्या मांगे जवाब ,
जब चोट दी हो
मरहम लगाने वाले ने ही।
ढूंढता है पत्थरों में निशानियाँ
पूछता है पत्थर बने
ईश्वर को
चेहरे पर वक्त की खरोंच लिए।
फिक्रमंद चेहरा
ग़मज़दा सा ,
एक दहशत
दिल में लिए घूमता है।
अभी भी तलाश है उसे अपनों की
पहाड़ पर खड़ा है वह ,
आस ले कर
पहाड़ से भी ऊँची।
है असमंजस में वह ,
व्याकुल -व्यथित सा ,
किससे मांगे
और
क्या मांगे जवाब ,
जब चोट दी हो
मरहम लगाने वाले ने ही।
ढूंढता है पत्थरों में निशानियाँ
पूछता है पत्थर बने
ईश्वर को
चेहरे पर वक्त की खरोंच लिए।
क्या बात हैं वक्त की खरोंच लिए , सुंदर रचना आदरणीय , धन्यवाद !
ReplyDeleteI.A.S.I.H - ( हिंदी में समस्त प्रकार की जानकारियाँ )
ओह !!
ReplyDeleteदुखद अभिव्यक्ति ! मंगलकामनाएं आपको !
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (01-07-2014) को ""चेहरे पर वक्त की खरोंच लिए" (चर्चा मंच 1661) पर भी होगी।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
ये खरोंचें शायद कभी न मिटें..... मर्मस्पर्शी
ReplyDeleteUpasana ji , behad sarthak abhivyakti...seena nam ho uthha ...
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteMarmsparshi.....!!
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