Sunday 29 June 2014

चेहरे पर वक्त की खरोंच लिए

कोई अब भी
 फिक्रमंद चेहरा
ग़मज़दा सा ,
एक दहशत
दिल में लिए घूमता है।

अभी भी तलाश है उसे अपनों की
पहाड़ पर खड़ा है वह ,
आस ले कर
पहाड़ से भी ऊँची।

है असमंजस  में वह ,
व्याकुल -व्यथित सा ,
किससे मांगे
और
क्या मांगे जवाब ,
जब चोट दी हो
मरहम लगाने वाले ने ही।

ढूंढता है पत्थरों में निशानियाँ
पूछता है पत्थर बने
ईश्वर को
चेहरे  पर वक्त की खरोंच लिए।



8 comments:

  1. क्या बात हैं वक्त की खरोंच लिए , सुंदर रचना आदरणीय , धन्यवाद !
    I.A.S.I.H - ( हिंदी में समस्त प्रकार की जानकारियाँ )

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  2. ओह !!
    दुखद अभिव्यक्ति ! मंगलकामनाएं आपको !

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  3. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (01-07-2014) को ""चेहरे पर वक्त की खरोंच लिए" (चर्चा मंच 1661) पर भी होगी।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  4. ये खरोंचें शायद कभी न मिटें..... मर्मस्पर्शी

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  5. Upasana ji , behad sarthak abhivyakti...seena nam ho uthha ...

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  6. बहुत सुंदर रचना

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