Saturday 18 May 2013

उधेड़-बुन


हर रोज़ एक शब्द
सोचती हूँ
उसे बुन लेती हूँ
बुन कर सोचती हूँ
फिर उधेड़ देती हूँ ...

उधड़े  हुए शब्द
ह्रदय में
एक लकीर सी बनते
तीखी धार की तरह
निकल जाते हैं ...

सोचती हूँ यह शब्दों
का बुनना फिर
उधेड़ देना
यह उधेड़-बुन न जाने
कब तक चलेगी ...

शायद
यह जिन्दगी ही
एक तरह से
उधेड़ -बुन ही तो  है...

(  चित्र गूगल से साभार )

5 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा आज रविवार (19-05-2013) के मंजिल को हँसी-खेल समझना न परिन्दों : चर्चा मंच- 1249
    मयंक का कोना
    पर भी है!
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    ReplyDelete
  2. बहुत सुंदर रूपक रचा है उपासना जी ! बहुत खूब !

    ReplyDelete
  3. बहुत ही सुंदर रचना उपासना

    ReplyDelete

  4. यह भी है जिंदगी का एक सचाई.
    डैश बोर्ड पर पाता हूँ आपकी रचना, अनुशरण कर ब्लॉग को
    अनुशरण कर मेरे ब्लॉग को अनुभव करे मेरी अनुभूति को
    latest postअनुभूति : विविधा
    latest post वटवृक्ष

    ReplyDelete