औरतें होती है
नदिया सी
तरल पदार्थ की तरह
जन्म से ही
हर सांचे में रम
जाती है ...
और पुरुष होते है
पत्थर से
ठोस पदार्थ की तरह ,
औरत को गढ़ना पड़ता है
छेनी- हथौड़ा ले कर
इनको
अपने सांचे के अनुरूप ...
एक अनगढ़ को
गढने की नाकाम
कोशिशों में ,
ये औरतें सारी उम्र
लहुलुहान करती रहती
अपनी उँगलियाँ और
कभी अपनी आत्मा भी ...
बाहर प्रभावी ...
ReplyDeleteइमानदारी से कहूं तो सच के करीब है लिखा ... गढना पड़ता है आदमी को ...
बहुत शुक्रिया दिगंबर नासवा जी
DeleteLekin kuch pathar aise bhee hote hain jinse koi murat nhi gadhi jati hain achcha vishay evam soch
ReplyDeleteबहुत शुक्रिया नीलिमा जी
Deleteकाव्य की दृष्टि से तो अभिव्यक्ति बहुत उत्तम है ....
ReplyDeleteलेकिन सांसरिक जीवन का सत्य तो यह है की कोई किसी को नहीं गढ़ पाया, गढ़ने की कोशिश नाकाम ही रहती है, इसमे की गई कोशिश लहूलुहान ही करती है ......
आध्यात्मिक दृष्टि से देखें तो - तराशने वाला तो खुद ही तरशता इस प्रक्रिया मे !
शुभकामनायें .....
हाँ जी , आपने सही कहा .....हार्दिक आभार जी
Deleteबहुत खुबसूरत एहसास सूक्ष्म भावना
ReplyDeleteबहुत शुक्रिया रमाकांत सिंह जी
Deleteफिर चाहे वो 'पुरुष'पति हो या बेटा ...बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteबहुत शुक्रिया अपर्णा जी
Deleteहर साँचें में ढल जाती है इसमे कोई संदेह नहीं
ReplyDeleteबहुत शुक्रिया राजेश सिंह जी
Deleteइश्वर ने ऐसा ही बनाया है हर सांचे में ढलने वाली ........सुन्दर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteबहुत शुक्रिया अरुणा जी
Deleteबहुत प्रभावी सुंदर अभिव्यक्ति ,,,
ReplyDeleteRECENT POST: मधुशाला,
बहुत शुक्रिया धीरेन्द्र सिंह जी
Deleteबहुत शुक्रिया यशोदा जी
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ReplyDeleteकभी वो गढ़ती है कभी वो सांचे में ढलती है.
सुन्दर प्रस्तुति
डैश बोर्ड पर पाता हूँ आपकी रचना, अनुशरण कर ब्लॉग को
अनुशरण कर मेरे ब्लॉग को अनुभव करे मेरी अनुभूति को
lateast post मैं कौन हूँ ?
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sachmuch striyon ne hi samay- samay par purusho ko gadh kar mahamanav banaya hai. sunder kavita.
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