Wednesday, 1 May 2013

औरत को गढ़ना पड़ता है ....



औरतें  होती है 
नदिया सी 
 तरल पदार्थ की तरह 
जन्म से ही 
हर सांचे में रम
 जाती है ...

और पुरुष होते है  
पत्थर से 
 ठोस पदार्थ की तरह ,
औरत को  गढ़ना पड़ता है 

छेनी- हथौड़ा ले कर
इनको 
 अपने सांचे के अनुरूप ...

 एक अनगढ़ को 
गढने  की नाकाम 
कोशिशों में ,
ये औरतें सारी उम्र
लहुलुहान करती रहती 
अपनी उँगलियाँ और 
कभी अपनी आत्मा भी ...




19 comments:

  1. बाहर प्रभावी ...
    इमानदारी से कहूं तो सच के करीब है लिखा ... गढना पड़ता है आदमी को ...

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    1. बहुत शुक्रिया दिगंबर नासवा जी

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  2. Lekin kuch pathar aise bhee hote hain jinse koi murat nhi gadhi jati hain achcha vishay evam soch

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    1. बहुत शुक्रिया नीलिमा जी

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  3. काव्य की दृष्टि से तो अभिव्यक्ति बहुत उत्तम है ....

    लेकिन सांसरिक जीवन का सत्य तो यह है की कोई किसी को नहीं गढ़ पाया, गढ़ने की कोशिश नाकाम ही रहती है, इसमे की गई कोशिश लहूलुहान ही करती है ......

    आध्यात्मिक दृष्टि से देखें तो - तराशने वाला तो खुद ही तरशता इस प्रक्रिया मे !

    शुभकामनायें .....

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    1. हाँ जी , आपने सही कहा .....हार्दिक आभार जी

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  4. बहुत खुबसूरत एहसास सूक्ष्म भावना

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    1. बहुत शुक्रिया रमाकांत सिंह जी

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  5. फिर चाहे वो 'पुरुष'पति हो या बेटा ...बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति

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    1. बहुत शुक्रिया अपर्णा जी

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  6. हर साँचें में ढल जाती है इसमे कोई संदेह नहीं

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    1. बहुत शुक्रिया राजेश सिंह जी

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  7. इश्वर ने ऐसा ही बनाया है हर सांचे में ढलने वाली ........सुन्दर अभिव्यक्ति

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    1. बहुत शुक्रिया अरुणा जी

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  8. बहुत प्रभावी सुंदर अभिव्यक्ति ,,,

    RECENT POST: मधुशाला,

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    1. बहुत शुक्रिया धीरेन्द्र सिंह जी

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  9. बहुत शुक्रिया यशोदा जी

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  10. कभी वो गढ़ती है कभी वो सांचे में ढलती है.
    सुन्दर प्रस्तुति
    डैश बोर्ड पर पाता हूँ आपकी रचना, अनुशरण कर ब्लॉग को
    अनुशरण कर मेरे ब्लॉग को अनुभव करे मेरी अनुभूति को
    lateast post मैं कौन हूँ ?
    latest post परम्परा

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  11. sachmuch striyon ne hi samay- samay par purusho ko gadh kar mahamanav banaya hai. sunder kavita.

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