Tuesday 9 April 2013

तुम मुझसे ना छुपा पाओगे ...


वेश बदल कर
मिलोगे
आहटें  न
बदल पाओगे ..

लब सिल कर रखोगे
नज़रों
 का बोलना ना
छुपा पाओगे  ...

चलते -चलते राह
बदल दोगे
पगडंडियाँ  ना
छोड़ पाओगे ...

मिलोगे भी नहीं
बात भी नहीं करोगे
सपने में आना  ना
छोड़ पाओगे ...

तुम से मैं हूँ
 मुझ से तुम हो
हर बात मुझसे जुडी है
तुम मुझसे ना
छुपा पाओगे ...

( चित्र गूगल से साभार )

20 comments:

  1. बाह सुन्दर ,सरस रचना . बधाई .
    समय मिलने पर मेरे ब्लॉग पर आने का कष्ट करें .

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    1. हार्दिक आभार मदन मोहन जी

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    1. हार्दिक आभार वंदना जी

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  3. लबों को सिलाने के बावजूद भी कोई किसी के भीतरी बात को समझे, सपनों को कोई रोक नहीं लगा सकता, आहटे पहचानना... अपने प्रिय के सूक्ष्मताओं को दिलों-दिमाग में बिठाने वाला ही कर सकता है। आपकी कविता में हमेशा प्रेम का समर्पित भाव उजागर होता है। drvtshinde.blogspot.com

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    1. हार्दिक आभार विजय जी

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  4. कोमल भावपूर्ण रचना....
    सुन्दर...
    :-)

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    1. हार्दिक आभार रीना जी

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    1. हार्दिक आभार कालिपद जी

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    1. हार्दिक आभार मोनिका जी

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  7. उपासना जी आपकी कविताएं अत्यंत सुंदर है और पाठकों के अभिव्यक्त न हो पाए भावों को प्रकट करती है। अगर यह किताब रूप में प्रकाशित हो चुकी है तो एकाध किताब मेरे पास भेज दें। समीक्षा करने को कविताएं आवाहन कर रही है। मेरा पता दे रहा हूं आप किताब स्पिड पोस्ट से भेज सकती हैं।
    पता- डॉ.विजय शिंदे, 41-बी, शाहूनगर कों. सो., बंसीलालनगर रेल्वे स्टेशन रोड, औरंगाबाद-431005 (महाराष्ट्र)

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  8. उम्दा,बहुत प्रभावी प्रस्तुति !!! उपासना जी,

    recent post : भूल जाते है लोग,

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    1. हार्दिक आभार धीरेन्द्र सिंह जी

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    1. हार्दिक आभार अमृता जी

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  10. हार्दिक आभार सदा जी

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  11. सही कहा है "जहां न पहुंचे रवि, वहाँ पहुंचे कवि"
    आप पर तो सटीक ही बैठती है ये बात .....
    आपमे कल्पना शक्ति गज़ब है या कोई अनुभव विशेष ....!
    पर उसकी प्रस्तुति अत्यंत सुंदर है ......
    बहुत बहुत शुभकामनायें.... जी

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    1. बहुत शुक्रिया जी इतनी अमूल्य टिप्पणी के लिए ... आपकी बात के जवाब मे कहूँगी की दोनो ही है अनुभव और कल्पना शक्ति भी

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