उसने धीमे कहा
क्या अगले जनम में भी
साथ निभाओगी ...
हाँ शायद !
पर मैं अगले जनम में
चिड़िया बनना
चाहती हूँ ,
वो कुछ सोचते हुए बोली ...
इस सुनहरे पिंजरे से
दूर उन्मुक्त
गगन में उड़ना
चाहूंगी ...
तुम मुझे कैसे
पहचानोगे तब ...!
हाँ पहचान लूँगा
मैं ...!
इस सुनहरे पिंजरे की
आभा से ,
तुम्हारे परों पर
तब भी होगी
और
तुम्हारी आवाज़ से ,
जो अभी भी चिड़िया
की तरह ही है ...
जब मैं हाथ बढाऊँ
तुम मेरी हथेली पर आ
बैठना
उसने अपनी आँखों की
चमक बढ़ाते हुए
धीरे से फिर कहा ...
बहुत ही सुन्दर भाव का एहसास,बेहतरीन आभार,आभार.
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद राजेन्द्र कुमार जी
Deleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteसाझा करने के लिए आभार!
हार्दिक धन्यवाद रूपचन्द्र शास्त्री जी
Deleteचिडिया आजादी का प्रतिक है। प्रकृति ने जैसे भैजा वैसे ही उसका रहना और पूरा संसार उसका घरौंदा बनना उसका अधिकार है। मन की आजादी की कल्पना चिडिया रूप धारण कर उतर रही है।
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद विजय जी
Deleteबहुत प्रभावी उम्दा प्रस्तुति !!! आभार
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद धीरेन्द्र सिंह जी
Deleteहाँ ...
ReplyDeleteजब मैं हाथ बढ़ाऊँ
तुम मेरी हथेली पर
आ बैठना .......
:')
बहुत सुंदर ....
हार्दिक धन्यवाद जी
Deleteअगाध विश्वास की अनकही कहानी
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद रमाकांत सिंह जी
Deleteबहुत सुन्दर और कोमल अहसास...
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