दरवाजा बंद कर
दस्तक भी
देते हो
देते हो
गुम हो कर
आवाज़
आवाज़
भी लगाते हो ...
चुप रहने को कह
नज़रो से सवाल
भी करते हो
आखिरी बार
मिलकर ,
मिलकर ,
मिलने भी चले
आते हो ...
ये तुम बार -बार ,
हर बार ,
मुझे कैसी
मुझे कैसी
दुविधा में घुमा
जाते हो ...
अरे,यही तो होता है हमेशा!
ReplyDeleteहार्दिक आभार प्रतिभा जी
Deleteप्रेम सदैव डर और दुविधा में ही पलता है
ReplyDeleteप्रेम की गहन अनुभूति
सुंदर
हार्दिक आभार ज्योति खरे जी
Deleteप्रेम के भीतर का न मिटने वाला न अलग होने वाला जुडाव है यह। जिसको जो बहुत प्रेम करता है उसका व्यवहार ऐसे ही रहेगा और दूसरी ओर से प्रेम पाने वाले के मन में भी देने वाले के प्रति अपार प्रेम है इसीलिए देने वाले की भावना और मंशाओं को पकड रहा है।
ReplyDeleteहार्दिक आभार विजय जी
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ReplyDeleteबहुत कठिन है डगर पनघट की !.......
कैसे कठिन है कृपया स्पष्ट करें जी ..मेरे लिए तो आज तक कोई भी डगर कठिन नहीं रही ...किसी डगर पर मैं चलूँ या ना चलूँ यह मेरी मर्ज़ी हो सकती है ...
Deleteसच दुविधा ही दुविधा..
ReplyDeleteप्रेम और दुविधा साथ-साथ....वाह!!
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