रंगमंच सी दुनिया है ,
सूत्रधार की कल्पना से परे !
पुरुषों के दो सर हैं
और स्त्रियां हैं यहाँ
बिना सर की !
बेटे के पिता का सर ,
बेटी के पिता से कितना भिन्न है !
एक बहन के भाई का सर भी
तो भिन्न है !
राह जाती किसी दूसरी
बहन के भाई से !
देख कर अपनी
सुविधा -सहूलियत
पुरुष बदल लेते हैं अपने सर !
यहाँ स्त्रियां खुश रहती हैं
इसी बात में ,
जन्म से ही बिना सर की हैं वे !
सिर नहीं है तभी तो
कदम चलते हैं उनके ,
जमे रहते हैं धरा पर !
कुछ स्त्रियां हैं ,
जिनके उग आए हैं सर !
लेकिन घर की चार दीवारी के
बाहर तक ही
क्यूंकि
घर में प्रवेश मिलता है सिर्फ
बिना सर वाली स्त्रियों को ही..
कुछ ऐसे भी हैं
बिना सर के
वे न स्त्री है न पुरुष है !
नपुसंक है वे
आसुरी प्रवृत्ति रखते हैं !
रोंदते हैं अपनी ही क्यारियों को
उजाड़ते हैं अपने ही आसरों को !
कैसा ये खेल है सूत्रधार का...
क्या वह भी मुस्कुराता है !
जब खेल देखता है
इन बदलते सिरों का ,
उगे सिरों को उतरने का ,
अपने कदमों तले
रोंदते अपने ही सिरों को !
यह भी तो हो सकता है
पात्र अपने सूत्रधार की
पटकथा से परे
अपनी मर्ज़ी के किरदार अदा करते हों !
और सूत्रधार ठगा सा,
हैरान सा
रह जाता है देखता !