भोर से साँझ
सूरज की सिंदूरी - सुनहरी बिंदी से शुरू
चाँद की रुपहली बिंदी पर खत्म
एक औरत का जीवन।
सूरज की बिंदी देखने की
फ़ुरसत ही कहाँ !
सरहाने पर या माथे पर
खुद की बिंदी और खुद को भी संभालती
चल पड़ती है दिन भर की खट राग की लय पर।
दिन भर की खट राग पर
पैरों को पर बना कर दौड़ती
कभी मुख पर चुहाते पसीने को पोंछती
आँचल को मुख पर फिराती ,
सरक जाती है जब बिंदी माथे से
जैसे सूरज पश्चिमांचल को चल पड़ा
या मन ही कहीं बहक पड़ा हो ,
थाली में देख कर ही
अपनी जगह कर दी जाती है बिंदी।
सारे दिन की थकन
या ढलते सिंदूरी सूरज की लाली ,
चेहरे के रंग में रंग जाती है बिंदी।
सिंदूरी रंग से रंगी बिंदी
चाँद की बिंदी से झिलमिला जाती है
मन का कोना तो
तब भी अँधियारा सा ही रहता है।
अपने माथे की बिंदी सहेजती ,
अगले दिन के सपने बुनती
चाँद की बिंदी को
उनींदी अँखियों से देखती
जीवन राग में कहीं खो जाती ,
बिंदी से शुरू बिंदी पर ख़त्म
जीवन बस यूँ ही बीत जाता।