Monday, 29 September 2014

दस्तक अब भी दी जा रही है..

बंद दरवाजे पर
दस्तक दी जाती रही
 दरवाजा नहीं खुला ।

मगर
दरवाजे के उस पार
आवाज़ें थी , हलचल थी
फिर  दरवाजा क्यों नहीं खुला !

 दरवाजे खुलने की कुछ शर्त थी शायद
 जब दोनों तरफ कुन्डी लगी थी
मजबूत ताले थे
तो  दस्तक का औचित्य ही क्या था !

क्या यह मात्र औपचारिकता थी
या सुलह की पहल
 मालूम नहीं !

दस्तक अब भी दी जा रही है
कुन्डीयों , तालों के टूटने का इंतज़ार है ...

यह कैसा लेख था ...

उस रात चाँद  चुप सा था
सितारे भी थे खामोश से
हवा भी दम साधे हुए थी ।

सन्नाटे में
कोई तो था
जो चुपके से आया

मन के
कोरे कागज़ पर
बिन  कलम , बिना सियाही
लिख  गया था
कुछ लेख ।

लेकिन
 यह कैसा लेख था
जो लिखा तो है
पढ़ा क्यों नहीं जाता

शायद यह किस्मत का लिखा
कोई लेख ही है ।

जो मन के कागज़ पर
ही लिखा  जाता है
माथे की लकीरों पर नहीं ।


Wednesday, 24 September 2014

गीत जो तुम मेरे लिए गुनगुनाते हो ....

गीत जो तुम ,
मेरे लिए
गुनगुनाते हो
हवाएं मुझ तक
पहुंचा देती है ......

 कुछ गीतों को
 सितारों में
टांक दिए हैं मैंने ,
कोई
टूटता सितारा
तुम्हारा गाया गीत
गुनगुना जाता है .....

कुछ गीतों को मैंने
कशीदाकारी से
फूल बना कर
आंचल पर सजा लिए ,
हर गीत फूल की
तरह
तुम्हारी याद को
महका जाता है ........

कुछ गीत बिखेर दिए
यूँ ही हवाओं में ,
लिपटी रहती हूँ तुम्हारे
अहसासों में ,
कभी कोई गीत  छू जाता है
मेरा अंतर्मन
तुम्हारी याद में
मैं भी गुनगुना उठती हूँ ...





Tuesday, 23 September 2014

काश कोई ऐसा संत सच में हो...

सुबह का समय
इंतजा़र एक सीटी की
कर्कश आवाज़ का...

सुन कर लोग
निकल आते हैं घरों से
जैसे
दवा डाल देने पर
कॉक्रोच।

हाथों में
अपने ही घर का कूड़ा लिए
और नाक ढके या
सांस रोके....

कूड़े वाला
चुप ,निर्विकार संत सा
सबका कूड़ा
इकट्ठा ,
एकसार करता
आगे बढ़ जाता ..

सोचती हूँ
काश कोई ऐसा संत
सच में हो
जो मानव हृदय के
कूड़े को कहीं दूर ले जाकर
फैंक दे ।

Thursday, 18 September 2014

रहने दो बेजुबान मेरे शब्दों को....

शब्द बिखरे पड़े हैं 
इर्द -गिर्द 
मेरे और तुम्हारे।
चुप तुम हो,
चुप मैं भी तो हूँ..


कुछ शब्द 
चुन लिए हैं
मैंने तुम्हारे लिए
लेकिन
बंद है मुट्ठी मेरी ,
मेरी जुबान की तरह ।

रहने दो बेजुबान 
मेरे शब्दों को
जब तक कि
तुम चुन ना लो 
कुछ शब्द मेरे लिए ...