परछाइयों को
पकड़ने तो चली ,
परछाइयाँ कब हुई
अपनी ,
अपनी न हुई
पकड़ना तो फिर भी
चाहा …
चाहा साथ निभाने की
शर्त लिए
साथ दिखाई तो देती रही
साथ फिर भी ना निभाया
इन परछाइयों ने …
कभी आगे
कभी पीछे
कभी -कभी क़दमों तले
होने का भान रहता सदा
कदम से कदम ना मिलाया
इन परछाइयों ने …।
ग़मों को बदली हो
दुःख का अँधेरा हो
साथ चलती परछाइयां
हो जाती गम
एक कदम भी साथ ना निभाया
इन परछाइयों ने …….
कौन किसका साथ देता है
कब तक देता है
इन्सान यूँ ही भागता रहता है
इन परछाइयों को पकड़ता ……
पकड़ने तो चली ,
परछाइयाँ कब हुई
अपनी ,
अपनी न हुई
पकड़ना तो फिर भी
चाहा …
चाहा साथ निभाने की
शर्त लिए
साथ दिखाई तो देती रही
साथ फिर भी ना निभाया
इन परछाइयों ने …
कभी आगे
कभी पीछे
कभी -कभी क़दमों तले
होने का भान रहता सदा
कदम से कदम ना मिलाया
इन परछाइयों ने …।
ग़मों को बदली हो
दुःख का अँधेरा हो
साथ चलती परछाइयां
हो जाती गम
एक कदम भी साथ ना निभाया
इन परछाइयों ने …….
कौन किसका साथ देता है
कब तक देता है
इन्सान यूँ ही भागता रहता है
इन परछाइयों को पकड़ता ……