Wednesday, 23 July 2014

शीशे पर निशान उभरे हैं या मेरे हृदय पर

हर रोज़
एक नन्हीं  सी चिड़िया
मेरी खिड़की के शीशे से
अपनी चोंच टकराती है ,
खट-खट की
खटखटाहट से चौंक जाती हूँ मैं ,

मानो कमरे के भीतर
आने का रास्ता ढूंढ  रही हो ,
उसकी रोज़ -रोज़ की
खट -खट से सोच में पड़ जाती हूँ  मैं ,

 वह क्यों चाहती है
भीतर आना
अपने आज़ाद परों से परवाज़
क्यों नहीं भरती
क्या उसे आज़ादी पसंद नहीं !

कोई भी तो नहीं उसका यहाँ
बेगाने लोग , बेगाने चेहरे
क्या मालूम
कहीं कोई बहेलिया ही हो भीतर !
जाल में फ़ांस ले ,
पर कतर दे !

वह हर रोज़ आकर
शीशे को खटखटाती है या
मोह-माया के द्वार को खटखटाती है
उसे नहीं मालूम !

मालूम तो मुझे भी नहीं कि
चोंच की खट -खट से
शीशे पर  निशान उभरे हैं
या मेरे हृदय पर
मैं नहीं चाहती उसका भीतर आना
पर चिड़िया की खटखटाहट और
मेरे हृदय की छटपटाहट अभी भी जारी है !




Monday, 7 July 2014

तुमको देखा तो ये ख़याल आया ...

 बरसों बाद 
तुमको देखा तो ये 
ख़याल आया ...

 'कि  जिन्दगी धूप
तुम घना साया !'

नहीं ऐसा तो नहीं सोचा मैंने !
जिंदगी  में ,
 विटामिन- डी के लिए
धूप की भी तो जरुरत 
होती है

तुम को देखा तो 
मुझे ख्याल आया 
उन खतों का
जो तुमने 
 लिखे थे कभी मुझे ...

वे खत
 मैंने अपनी यादों में
और खज़ाने की तरह 
एक संदुकची में संभाल कर 
रखे है
देख कर उनको 
तुम्हें भी याद कर लिया करती हूँ

तुमको देखा तो
अब फिर से ख्याल आया 
जो मैंने तुम्हें ख़त लिखे थे 
वे  मुझे वापस लौटा दो ...

देखो गलत ना समझो मुझे 
वे  अब तुम्हारे भी किस
 काम के है
समझने की कोशिश तो 
करो जरा मुझे ...!!

अरे !!
महंगे होते जा रहे है 
गैस -सिलेंडर। 
अब  चूल्हा जलाने के काम 
 आयेंगे ना 


तुम्हारे और मेरे ख़त ...!!!