हम साथ -साथ
चलते हुए
कुछ ऐसे बिछड़े ,
अलग - अलग राह पर
कुछ ऐसे घूमे
एक दायरे में ही बंधकर
रह गए
जहाँ से
ना तुम निकल पाए ,
ना ही निकल पायी मैं कभी ..
जान कर भी
अनजान बन जाना
कतरा कर
करीब से अजनबी बन कर
निकल जाना
बन्धनों से जकड़े
दूर से
एक- दूसरे की तरफ
मायूसी से ताकते हुए ...
अक्सर इस दायरे से
जब भी
धुंआ बन उड़ जाती हूँ ,
तुम्हें
अपने सामने ही पाती हूँ
तुम्हारा हाथ
एक बार फिर से
थाम कर निकल पड़ती हूँ
क्षितज के पार
जहाँ धरती -गगन मिलते नहीं
लेकिन
मिलते से प्रतीत तो होते हैं।
(चित्र गूगल )
चलते हुए
कुछ ऐसे बिछड़े ,
अलग - अलग राह पर
कुछ ऐसे घूमे
एक दायरे में ही बंधकर
रह गए
जहाँ से
ना तुम निकल पाए ,
ना ही निकल पायी मैं कभी ..
जान कर भी
अनजान बन जाना
कतरा कर
करीब से अजनबी बन कर
निकल जाना
बन्धनों से जकड़े
दूर से
एक- दूसरे की तरफ
मायूसी से ताकते हुए ...
अक्सर इस दायरे से
जब भी
धुंआ बन उड़ जाती हूँ ,
तुम्हें
अपने सामने ही पाती हूँ
तुम्हारा हाथ
एक बार फिर से
थाम कर निकल पड़ती हूँ
क्षितज के पार
जहाँ धरती -गगन मिलते नहीं
लेकिन
मिलते से प्रतीत तो होते हैं।
(चित्र गूगल )
(Y)
ReplyDeleteसुन्दर !
ReplyDeleteनई पोस्ट नेता चरित्रं
नई पोस्ट अनुभूति
बहुत बढ़िया कृति व प्रस्तुति , आदरणीय उपासना जी धन्यवाद
ReplyDelete॥ जै श्री हरि: ॥
भावो को खुबसूरत शब्द दिए है अपने..
ReplyDeleteसुंदर भावों की अभिव्यक्ति .....!!
ReplyDeletesundar bhawon ka sanyojan
ReplyDeleteकोमल भावना की सशक्त अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteबहुत उम्दा भावपूर्ण प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...
ReplyDeleteनयी पोस्ट@ग़ज़ल-जा रहा है जिधर बेखबर आदमी
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज सोमवार (09-12-2013) को "हार और जीत के माइने" (चर्चा मंच : अंक-1456) पर भी है!
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुंदर......
ReplyDeleteबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति....
ReplyDelete:-)
जहां धरती गगन नही मिलते पर मिलते से प्रतीत होते हैं। यही तो है विडंबना।
ReplyDeletewah bahut sundar prastuti
ReplyDeleteएक ही दायरे में भी साथ तो होते हैं ... चाहे भ्रम में ही सही ...
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