Tuesday 9 December 2014

बदला फिर क्या था ...!

सभी कुछ
वैसे ही था
जैसे बरसों पहले हुआ करता था ।
गाँव , खेत , जोहड़
वही गलियां...
गलियों में से गुजरता
बचपन भी वही था ।
खेतों की ओर
जाने वाली हवाएँ,
खेतों की तरफ
अब भी बहा ले
जाना चाह रही थी ।
और जोहड़ !
जोहड़ में तैरती भैंसो ने
अब तक
अपनी आदते नहीं बदली...
ऩा जाने
आपस में बतियाती है
या
खो जाने के भय से
अपनी गरदन रखे रहती है
एक दूसरी की पीठ पर....।
किनारे पर
कदम ताल करती
बतखों के कदम
अब भी सधे थे....
बदला फिर क्या था ...!
गाँव की हवा...
या
गाँव के लोगों के मिज़ाज...
सच्ची मुस्कुराहटें
कहीं दूर चली गई हो...
हर कोई
नकाब ओढे हुए ,
मुखोटों के पीछे से झांकता मिला...
वो बच्चे भी नज़र नहीं आए ,
जो जोहड़ किनारे
टूटी मटकी के टुकड़ों को
पानी पर तैरा दिया करते थे....
नज़र आए भी तो
किताबों के ढेर के नीचे दबे
या
मोबाइल फोन के
अंदर झांकते हुए...
शहरी जहरीली हवाएँ
असर कर रही है
गाँव के लोगों की
रीढ़ की हड्डी पर....
तभी तो ,
मैंने बिना रीढ़ के
लोगों को जन्मते देखा
मेरे बचपन के गाँव में...

9 comments:

  1. बेहद उम्दा रचना ..बधाई सखी

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  2. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 11-12-2014 को चर्चा मंच पर चर्चा - 1824 में दिया गया है
    आभार

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  3. बहुत सुंदर और अर्थपूर्ण रचना.

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  4. बहुत सार्थक कवि‍ता...बदल गए हैं लोग

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  5. बहुत ही सुंदर......
    वर्तमान सामाजिक परिदृश्य और जीवन के बदले स्वरूप पर सार्थक और चिंता व्यक्त करती आपकी ये कविता निश्चय ही सराहनीय है ......
    बहुत बहुत शुभकामनायें .....

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  6. बदलाव को बयाँ करती कविता !!!!

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  7. सार्थक और बेहतरीन रचना..

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  8. बहुत सुंदर रचना

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