जो सर सरहद पर
न झुका था कभी ,
उस सर को मैंने
झुकते देखा है ..
जिन हाथों को
दुश्मन के गले दबाते
देखा था कभी ,
उन हाथों को मज़बूरी में
जुड़ते मैंने देखा है ..
जो आँखे सरहद पर
अंगारे उगलती थी कभी
,
उन्ही आँखों को मज़बूरी के
आंसुओं से भरा मैंने देखा है ...
क्यों कि
आज वह सरहद पर नहीं
आज वह सरहद पर नहीं
अपनी बेटी के ससुराल
की देहरी पर खड़ा था ...
बहुत सुन्दर...
ReplyDeleteभावपूर्ण कविता...