Monday, 27 February 2012

मज़बूरी


जो सर सरहद पर

 न झुका था कभी ,

उस सर को मैंने

 झुकते देखा है ..


जिन हाथों  को

 दुश्मन के गले दबाते

 देखा था कभी ,

उन हाथों को मज़बूरी में

 जुड़ते मैंने देखा है ..


जो आँखे सरहद पर

 अंगारे उगलती थी कभी 
,
उन्ही आँखों को मज़बूरी के

 आंसुओं से भरा मैंने देखा है ...


क्यों कि 

आज वह सरहद पर नहीं 

अपनी बेटी के ससुराल

की देहरी पर खड़ा था ...

1 comment:

  1. बहुत सुन्दर...
    भावपूर्ण कविता...

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