सुनो बेटी.........!
अब मैं नहीं सुनूंगी
कोई भी पुकार -फरियाद
तुम्हारी
ना ही पढूंगी अब मैं
कोई भी पाती तुम्हारी ...
तुम्हें क्यूँ कर जन्म दूँ
जब मैंने ,
कोई भी - कभी भी
किया नहीं कोई प्रतिकार
अपने ही घर में
जब हुआ
किसी और स्त्री पर अत्याचार ...
बन रही मूक की भांति
बेजुबां
जबकि मेरे पास भी थी
एक जुबां ,
रही मैं तब भी बन मूक
जब हुआ किसी परायी बेटी
पर अत्याचार ...
ना देख पाउंगी
अब मैं तुम्हारे साथ
कोई होते अत्याचार -दुराचार
अब मेरी "सोच की" भी
आत्मा थर्राती है ...
तुम्हें
खुला आसमान ,
मज़बूत धरती
देते हुए डर सताएगा
मुझे भी अब ,
क्यूंकि
मैंने नहीं सिखाया तुम्हारे
भाइयों को स्त्री का आदर
करना ...!
जब कटे हो
मेरे अपने ही पंख ,
जब बंद हूँ खुद ही पिछड़ी सोच के
पिंजरे में
नहीं दे सकती जब तुम्हें मैं एक
खुला आसमान
तब तक तुम जन्म न ही लो ...
क्यूंकि मैंने नहीं सिखाया तुम्हारे
ReplyDeleteभाइयों को स्त्री का आदर
करना ............!
जब मेरे अपने पंख ही कटे हो तो ,
मैं नहीं दे सकती तुम्हें खुला
आसमान ....................
तुम जन्म लो ये मैं नहीं चाहती अब
जब तक मैं ................................!!!!
ufffff sihar gai mai..
खुद की उड़ान संभव नही तो बेटी को कैसे धरती पे लाए...बार बार समाज़ का भय सताए...सुंदर रचना दी
ReplyDeletebahut bahut shukriya aparna ji
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