Sunday 19 October 2014

सूरज की बिंदी से शुरू चाँद की बिंदी पर खत्म


भोर से साँझ
सूरज की सिंदूरी - सुनहरी बिंदी से शुरू
चाँद की रुपहली बिंदी पर खत्म
एक औरत का जीवन।

सूरज की बिंदी देखने की
फ़ुरसत ही कहाँ !
सरहाने पर या माथे पर
खुद की बिंदी और खुद को भी संभालती
चल पड़ती है दिन भर की खट राग की लय  पर।

दिन भर की खट राग  पर
पैरों को पर बना कर दौड़ती
कभी मुख पर चुहाते पसीने को पोंछती
आँचल को मुख पर फिराती ,
सरक जाती है जब बिंदी माथे से
जैसे सूरज पश्चिमांचल को चल पड़ा
या मन ही कहीं  बहक पड़ा हो ,
थाली में देख कर ही
अपनी जगह कर दी जाती है बिंदी।

सारे  दिन की थकन
या ढलते सिंदूरी सूरज की लाली ,
चेहरे के रंग में रंग जाती है बिंदी।

सिंदूरी रंग से रंगी बिंदी
चाँद की बिंदी से झिलमिला जाती है
मन का कोना तो
तब भी अँधियारा सा ही रहता है।


अपने माथे की बिंदी सहेजती ,
अगले दिन के सपने बुनती
चाँद की बिंदी को
उनींदी अँखियों से देखती
जीवन राग में कहीं खो जाती ,
बिंदी से शुरू बिंदी पर ख़त्म
जीवन बस यूँ ही बीत जाता।















25 comments:

  1. सही चित्रण एक व्यस्त नारी की .... बहुत ही सुंदर रचना

    ReplyDelete
    Replies
    1. हार्दिक धन्यवाद

      Delete
  2. बिंदी से शुरू बिंदी पर ख़त्म
    जीवन बस यूँ ही बीत जाता।
    आम स्त्री के जीवन का सटीक और मर्मस्पर्शी रेखांकन

    ReplyDelete
    Replies
    1. हार्दिक धन्यवाद

      Delete
  3. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी पोस्ट हिंदी ब्लॉग समूह में सामिल की गयी है और आप की इस प्रविष्टि की चर्चा - सोमवार- 20/10/2014 को
    हिंदी ब्लॉग समूह चर्चा-अंकः 37
    पर लिंक की गयी है , ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया आप भी पधारें,

    ReplyDelete
    Replies
    1. हार्दिक धन्यवाद

      Delete
  4. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (20-10-2014) को "तुम ठीक तो हो ना.... ?" (चर्चा मंच-1772) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच के सभी पाठकों को
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    ReplyDelete
  5. सच बहुत सुन्दर --- <3 अपने माथे की बिंदी सहेजती ,
    अगले दिन के सपने बुनती
    चाँद की बिंदी को
    उनींदी अँखियों से देखती
    जीवन राग में कहीं खो जाती ,
    बिंदी से शुरू बिंदी पर ख़त्म
    जीवन बस यूँ ही बीत जाता।

    ReplyDelete
    Replies
    1. हार्दिक धन्यवाद DI

      Delete
  6. Behad bhaawpurn umdaa rachna !!

    ReplyDelete
    Replies
    1. हार्दिक धन्यवाद

      Delete
  7. जीवन बस् यूँ ही बीत जाता है ...............अति सुन्दर रचना !!

    ReplyDelete
  8. नारी जीवन का सच लिखा है ... यूँ ही जीवन गुज़र जाता है ...
    आपको दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें ...

    ReplyDelete
    Replies
    1. आपको भी दीपावली की राम-राम...

      Delete
  9. नारी जीवन का बहुत सटीक और प्रभावी चित्रण...लाज़वाब प्रस्तुति..

    ReplyDelete
    Replies
    1. हार्दिक धन्यवाद

      Delete
  10. दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें!

    ReplyDelete
    Replies
    1. आपको भी दीपावली की राम-राम...

      Delete
  11. अनुपम प्रस्तुति....आपको और समस्त ब्लॉगर मित्रों को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं...
    नयी पोस्ट@बड़ी मुश्किल है बोलो क्या बताएं

    ReplyDelete
    Replies
    1. आपको भी दीपावली की राम-राम....

      Delete
  12. वैसे जीवन तो है ही बिंदी (शून्य ) से जन्मा और बिंदी (शून्य ) मे विलीन होने के लिए ....
    जीवन का बीत जाना शाश्वत है अब यूं ही बीते या क्यूँ कर बीते या कुछ कर बीते ...... !

    मानना पड़ेगा आपका कवि मन कल्पना मे कहाँ कहाँ पहुंचता है और शब्दों मे गूढ भाव अभिव्यक्त कर जाता है ...... प्रशंसनीय !

    आपको दीवाली की ढेरों शुभकामनाएँ ! ....

    - 'जाना पहचाना अंजाना'

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत शुक्रिया " जाने पहचाने अनजाने जी " जरा नाम भी पता चल जाता तो बहुत अच्छा रहता ....समय के साथ और उम्र के साथ भी स्मृतियाँ धुंधलाने लग जाती है ...इसलिए नाम भी बता दीजिये ......आपको भी दीपावली की राम-राम :-)

      Delete
    2. जब अंजाना, जाना पहचाना सा हो तो नाम की क्या आवश्यकता !
      अंजान का अपना सा पन किसी किसी को ही नसीब होता है.....
      :-)
      शुभकामनायें

      Delete
  13. nari jiwan ko kis khubsurti se aapne chitrit kiya hai....wah

    ReplyDelete
  14. बहुत खूबसूरती से उकेरा है आपने नारी की व्यस्तता का चित्र...

    ReplyDelete