तुम नहीं जानते
क्यूँ करती रही हूँ
मैं ऐसा
और करती ही रहती हूँ
हमेशा -हमेशा ,
जहाँ भी लगता है
तुम्हारा कुछ भी सुराग
पहुँच जाती हूँ
बिन सोचे -बिन रुके
मन और नयन
तुम्हें ही तलाशते हैं
मुझे मालूम है
तुम
वहां नहीं हो
जहाँ
मैं तलाशती हूँ
मालूम है मुझे यह भी
टकराती हूँ मैं
और
मेरी आवाज़
सिर्फ पत्थरों से ही
लेकिन
फिर भी मैं वहां पहुँच जाती हूँ
जहाँ तुम नहीं होते
लेकिन
तुम्हारा कुछ सुराग पाती हूँ
( चित्र गूगल से साभार )
क्यूँ करती रही हूँ
मैं ऐसा
और करती ही रहती हूँ
हमेशा -हमेशा ,
जहाँ भी लगता है
तुम्हारा कुछ भी सुराग
पहुँच जाती हूँ
बिन सोचे -बिन रुके
मन और नयन
तुम्हें ही तलाशते हैं
मुझे मालूम है
तुम
वहां नहीं हो
जहाँ
मैं तलाशती हूँ
मालूम है मुझे यह भी
टकराती हूँ मैं
और
मेरी आवाज़
सिर्फ पत्थरों से ही
लेकिन
फिर भी मैं वहां पहुँच जाती हूँ
जहाँ तुम नहीं होते
लेकिन
तुम्हारा कुछ सुराग पाती हूँ
( चित्र गूगल से साभार )
नमस्कार आपकी यह रचना कल सोमवार (16-09-2013) को ब्लॉग प्रसारण पर लिंक की गई है कृपया पधारें.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज सोमवार (16-09-2013) गुज़ारिश प्रथम पुरूष की :चर्चामंच 1370 में "मयंक का कोना" पर भी है!
हिन्दी पखवाड़े की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत खुबसूरत रचना अभिवयक्ति.........
ReplyDeleteसुंदर सृजन ! बेहतरीन रचना !!
ReplyDeleteRECENT POST : बिखरे स्वर.
सुंदर भावाभिव्यक्ति
ReplyDeleteइसी सुराग के जरिये एक दिन उन्हें भी पा जाना है ... यही तो नियति है ... चाह है ...
ReplyDeleteभावमय प्रस्तुति ...
एक अनोखा आकर्षण जो मन बाँध फिर फिर वहीँ लेजाता है जहाँ उनके होने की आशा हो ... सुन्दर भावों से पूर्ण रचना !
ReplyDeleteआदरेया उपासना जी बेहतरीन शब्दों में मानवीय आकर्षण की सुन्दर व्याख्या किये है काबिले तारीफ है,धन्यबाद।
ReplyDeleteकाश सुराग मिल पाते उनके जो चले जाते हैं .सुन्दर रचना
ReplyDeleteआपकी इस रचना को सोमवारीय चर्चा(http://hindibloggerscaupala.blogspot.in/) में शामिल किया है, जरुर पधारें।
ReplyDeletejaasus :D
ReplyDeletesundar rachna.......