वजूद स्त्रियों का
खण्ड -खण्ड
बिखरा-बिखरा सा।
मायके के देश से ,
ससुराल के परदेश में
एक सरहद से
दूसरी सरहद तक।
कितनी किरचें
कितनी छीलन बचती है
वजूद को समेटने में।
छिले हृदय में
रिसती है
धीरे -धीरे
वजूद बचाती।
ढूंढती,
और समेटती।
जलती हैं
धीरे-धीरे
बिना अग्नि - धुएं के
राख हो जाने तक।
धंसती है
धीरे -धीरे
पोली जमीन में ,
नहीं मिलती ,
थाह फिर भी
अपने वजूद की।
नहीं मिलती थाह उसे
जमीन में भी ,
क्यूंकि उसे नहीं मालूम
उसकी जगह है
ऊँचे आसमानों में।
इस सरहद से
उस सरहद की उलझन में
भूल गई है
अपने पंख कहीं रख कर।
भटकती है
वह यूँ ही
कस्तूरी मृग सी।
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, ठुमरी साम्राज्ञी गिरिजा देवी को ब्लॉग बुलेटिन का नमन “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteसुन्दर रचना
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "मित्र मंडली" में लिंक की गई है https://rakeshkirachanay.blogspot.in/2017/10/41.html पर आप सादर आमंत्रित हैं ....धन्यवाद!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर....
ReplyDeleteउसकी जगह है आसमानो में...
वाह!!!!
कितना सही लिखा आपने -- नारी जीवन के कटु और शाश्वत सत्य से भरपूर रचना | नदिया सा है नारी का जीवन -- कहीं जन्म कहीं जा मिलना | सच है भ्रामक सपने आँखों में भरे कस्तुरी मृग सी है नारी |
ReplyDeleteवाह !
ReplyDeleteबहुत सुंदर !
स्त्री जीवन को परिभाषित करती आपकी गंभीर रचना में वेदना और बंदी संवेदना के पाखी का व्यग्र स्वर है।
आपका सृजन विशिष्ट छाप छोड़ता है।
बधाई एवं शुभकामनाऐं।
लाजवाब प्रस्तुति !
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