तुम्हारे साथ चला नहीं जाता
नहीं सहन होती अब मुझसे
तुम्हारी बेरुखी .......
ये बेरुखी मुझे लहुलुहान किये
दे रही है ,
कब तक पुकारूँ तुम्हें ,
जब हो मेरी हर पुकार ही अनसुनी ...
नहीं पुकारुगी तुम्हे
ना ही मुड़ ,थाम कर कदम देखूंगी ,
तुम्हारी तरफ कातर निगाहों से ......
तोड़ डाले हैं सारे तार
जो तुम संग जोड़े थे कभी
हर वह बात ,जो तुमसे जुडी थी ..........
यह जुडाव भी तो मेरा ही था
तुम थे ही कब मेरे ,
कब चले थे साथ मेरे ...
कुछ गीले क़दमों से साथ चले
और मैं साथ समझ बैठी ..
वो क़दमों का गीला पन तो कब का
धूप में घुल गया
मैं तलाशती रही वो कदमो के निशाँ .......
एक आस ,एक उम्मीद
जो तुमसे लगा कर रखी थी मैंने ,
जाओ आज मुक्त कर दिया तुम्हे
और मैं भी मुक्त ही हो गयी
तुम्हारी यादों से ,
तुम्हारे झूठे वादों से .....