मन तो मन ही है
ना जाने कब ,
किस जहाँ की ओर उड़ चले ....
लेकिन ,
जब - जब मन ने उड़ान
भर कर
घर की देहरी पार करनी चाही
तो ना जाने कितने रेशमी
तार क़दमों में आ कर
उलझा दिए गए ,
इन रेशमी तारों की उलझन
सुलझाने
और गाँठ लगने से बचाने में ही
भले ही कभी उंगलिया लहू -लुहान
ही क्यूँ ना हो गयी हो ...
लेकिन ,
फिर भी ,
इस मन ने उड़ान भरनी तो नहीं
छोड़ी ,
आज ये मन एक बार फिर
चाँद को छूने को चल
पड़ा है ....
देखें अब कौन रोकता है मन को
उड़ान भरने से .....
मन तो मन है ...उड़ान को मन ही रोक पाएगा ... खूबसूरत रचना
ReplyDeleteमन होता ही चंचल है उपासना जी , बेहतरीन भाव सुन्दर रचना
ReplyDeleteजहाँ चाह वहाँ राह..सुन्दर रचना..
ReplyDeleteमन अपना होता है,आंसुओं से सराबोर भी उड़ता है
ReplyDeleteमन बड़ा बावरा है . तब ही तो कभी बेदी बाँध लेता है तो कभी आसमान नापने की जुगत भिड़ाता है
ReplyDeleteदिलमें यदि तुम ठान लो,अच्छी रक्खो चाह
ReplyDeleteरोक न पाय कोई भी,मिल जाती है राह,,,,,,
RECENT POST: तेरी फितरत के लोग,
बहुत सुन्दर.....मन के मत पर मत चलियो ये जीते जी मरवा देगा ।
ReplyDeleteAre wah..mere man ko to bht hi achi lagi yah. Mera man b na jane kitni kulaache bharta h..abhi yaha to abhi waha. :)
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