कोई है
जो है
अपना सा
मगर
है वह
अनजाना सा ...
हर रोज
पाती लिखी जाती है
उसे ...
हर रोज
दुआ में हाथ उठते हैं
सलामती की
होती है
एक दुआ
उसके नाम की भी
मगर
जाना-अनजाना
बेखबर है
मगन है
कहीं दूर
बहुत ही दूर ...
थोड़ा बहरा भी है
शायद
नहीं सुनती
उसे
मंदिर की घंटियां
ह्रदय की पुकार ही ...
वह बन बैठा है
रब जैसा ,
शायद
नहीं यकीनन ही
बन बैठा है
रब जैसा ही ...
रब
जैसे ही वह
दिखाई देता है
मगर
सुनाई नहीं देता ,
सुनवाई भी नहीं करता !