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Friday, 31 May 2013

जब तुम्हे मेरा ख़त मिला होगा


जब तुम्हे 
मेरा ख़त मिला
 होगा
दिल तुम्हारा भी तो 
धड़का होगा...

गुलाबी लिफाफे  पर 
अपना नाम
देख कर मन में
 मुस्काये तो 
जरुर होंगे ...

 ख़त को धीरे से
 हाथ में ले कर
 आँखों से भी
तो  लगाया होगा ...

 प्यार से महकते हुए
 ख़त के उस कोने को 
धीरे से  अपने लबों
से भी तो छुआ होगा ,
जहाँ मेरा नाम
लिखा था ...

ख़त को 
फिर आहिस्ता  से 
लिफाफे से बाहर
निकाला होगा ...

ऐसे जैसे 
मेरी जुल्फों  
को सहलाया तुमने ..
  मुझे तब 
ऐसा ही अहसास  हुआ 
 तुम मेरे पास ही 
मेरी जुल्फों को सहला
 रहे हो ...

ख़त पर लिखे,
 मुहब्बत से भीगे  लफ्ज़
तितलियाँ बन
  मंडरा रही होगी 
तुम्हारे आस पास 
जब तुमने यह पढ़ा होगा ...

 ख़त पढ़ते -पढ़ते
 तुम और मैं कब करीब
 आ गए  
तुम्हें पता भी 
ना चला होगा ...

( चित्र गूगल से साभार )


Thursday, 30 May 2013

संसार के सारे ही रंग बेटियों से ही होते है ...

आँखे बंद करके 
सोचा जब तुझे  ,
छोटे - छोटे,नर्म -मुलायम ,
हाथों को ,
फूलों की पंखुड़ी से
 कोमल मुखड़े  को 
अपने बहुत करीब पाया ...  




सोचती हूँ
 कितना अद्भुत होता 
 जो तुम मेरी बाँहों में झूलती,
कभी ओझल न करती 
अपनी नज़रों से ,
तुम्हारी भोली मुस्कान-
पर दुनिया ही वार देती मैं  ...


पहनाती तुझे
पैरो में नन्ही -नन्ही पायल ,
महसूस करती ,
 घुंघरू के रुनझुन को अंतर्मन में 


.


 किस्मत वाले ही
 होते वे जिनके घर होती हैं बेटियां
 मुझे तुझ बिन दुनिया ही 
बे-रंग लगती है ,
क्यूंकि संसार के सारे ही रंग बेटियों 
से ही होते है ...


जिन्दगी तुझसे क्या सवाल - क्या शिकायत करूँ...

जिन्दगी तुझसे क्या
 सवाल करूँ , क्या शिकायत करूँ
तुझसे जैसा चाहा
 वैसा ही पाया ...

फूल चाहे तो फूल ही मिले
फूलों में काँटों की शिकायत
तुझसे क्यूँ करूँ ,
मेरी तकदीर के  काँटों की
 शिकायत  तुझसे क्यूँ करूँ ...

सितारों भरा आसमान
चाहा तो भरपूर सितारे मिले
कुछ टूटे बिखरे सितारों की शिकायत
तुझसे क्यूँ करूँ ,
मेरी तकदीर के टूटे सितारों
की शिकायत तुझसे क्यूँ करूँ ...

जिंदगी हर कदम पर तूने
दिया साथ मेरा ,
मंजिल पर आकर राह भटक  गयी
शिकायत तुझसे क्यूँ करूँ
मंजिल के लिए तरसना मेरी तकदीर
शिकायत तुझसे क्या करूँ ...

Tuesday, 28 May 2013

नारी ही बांधती सभी रिश्ते -नाते ...

नाते -रिश्ते
जैसे
खड़ी दीवारें ,
तपती धूप में खड़ी
भीगती बारिश में ,
सर्द हवाओं के थपेड़े झेलती ...

नारी ही बांधती
बन कर
छत की तरह
सभी रिश्ते -नाते ...

 सभी को समेट लेती
बचा लेती ,
तपती धूप
बरसती बारिश
सर्द हवाओं के  थपेड़ों से ...

मजबूत छत
 जैसी नारी
रिश्ते मिलते उसे
बर्फ की दीवारों से ...

बचाती -समेटती
नाते - रिश्तों को
नारी के हाथ क्या रहता
एक दिन
सिवाय
पिघली बर्फ के ...!




( चित्र गूगल से साभार )

Monday, 27 May 2013

हर किसी की अपनी -अपनी आशाएं है ......

भोर होते ही ,
जैसे चल पड़ती है 
जिन्दगी 
अपनी रफ़्तार पर ,
एक नयी आशा लिए 
इस आशा रूपी सागर पर ...

एक बूढी माँ को इंतज़ार
है अपने लाल का जो
सिर्फ पैसे के साथ सांत्वना ही
भेजता है ,
अगले त्यौहार पर आने की ...

एक ललना को इंतजार है ,
अपने सुहाग का जो दूर
परदेश गया है कमाने ...

एक बहन को इंतज़ार है ,
अपने भाई का जो उससे
रूठा है ,
इंतज़ार है उसे मायके की दहलीज़
से पुकार का ...

हर किसी की
अपनी -अपनी आशाएं है
इंतज़ार है ,
हर सुबह जो ले कर आती है ...

ये जिन्दगी की नाव तो रफ़्तार से
चलती ही रहती है ,
पर इसकी पतवार थामे हुए तो
वह ऊपर वाला ही है ,
जो हर किसी की आशा
पूरी करता है ..
.

चित्र गूगल से साभार 

Friday, 24 May 2013

ਭਾਵੇਂ ਤੂ ਚੁਪ ਰਹਿ ( चाहे तू चुप रहे )


ਭਾਵੇਂ  ਤੁੰ  ਚੁਪ ਰਹਿ
ਕੁਝ ਨਾ ਬੋਲ
ਮੈਂ ਤੇਰੀ ਚੁੱਪੀ ਨੁੰ ਵੀ
ਸੁਣ ਲੇਂਦੀ ਹਾਂ ...

 ਕਿਵੇਂ ...!
ਏ ਰਾਜ਼  ਤੁੰ ਨਹੀ ਜਾਣ ਸਕਦਾ ,
ਕਿਉਂਕਿ
ਮੈਂ  ਵੀ ਹਾਲੇ ਤਕ
ਇਹ ਰਾਜ਼ ਨਹੀ ਸਮਝੀ ...

ਪਰ ਤੈਂਨੂੰ  ਤਾਂ ਮੈਂ ਸਮਝ
ਹੀ ਗਈ ਹਾਂ
ਚੁਪ ਬੂਲੀਆਂ ਚ ਕੁਝ ਨਾ
ਬੋਲ ਕੇ ਵੀ
ਸਬ ਕੁਝ ਸਮਝਾ ਦੇਣਾ
ਇਹ ਤੇਰੀ ਆਦਤ
ਪੁਰਾਣੀ ਹੈ ...

ਅੱਜ ਵੀ ਤੁੰ  ਬਿਨਾ ਬੋਲੇ
 ਚਲਾ ਗਿਆ
ਤਾਂ ਕਿ ਮੈਂ ਅਣਸੁਣੀ ਰਹਿ ਗਈ
ਤੇਰੀ ਗੱਲਾਂ ,
ਤੇਰੀ ਹਰ ਸਾਂਸ ਮੈਂਨੂੰ ਹੀ
ਵਾਜਾਂ ਮਾਰਦੀ ਹੈ
ਭਾਵੇਂ ਤੁੰ ਕੁਝ ਨਾ ਬੋਲੇ ...

..........................................................................................................
चाहे तू चुप रहे
कुछ ना बोले
तेरी चुप्पी को भी मैं
सुन लेती हूँ ...

कैसे ...!
ये राज़ तूं नहीं जान सकता
क्यूंकि
मैं भी अभी तक
यह राज़ नहीं समझी ...

पर तुझे तो मैं समझ ही
 गई हूँ
चुप होठों से
कुछ ना बोल कर भी
सब कुछ समझा देना
यह तेरी पुरानी
 आदत है ...

आज भी तू बिन बोले
चला गया
तो क्या मैं अनसुनी रह गए
तेरी बातें ,
तेरी हर साँस मुझे ही
आवाजें देती है
चाहे तू कुछ न बोले ...


( चित्र गूगल से साभार )


Tuesday, 21 May 2013

जिन्दगी हर कोई जीता है ...


जिन्दगी क्या है ...!
हर कोई जीता है 
लेकिन ,
क्या हर कोई जीता है जिन्दगी ,
जिन्दगी की तरह ...!

पर नहीं शायद ,
कोई- कोई ही जीता है जिन्दगी ,
जिन्दगी की तरह ...

किसी को यह फूलों की राह
 नज़र आती है ,
कोई इसमें काँटों की चुभन की 
शंका लिए कदम ही 
नहीं बढ़ाता ...

चलने वाला
 काँटों से बचाता खुद को ,
कभी झेलता , 
 अपनी मंजिल भी पाता  है और 
फूलों की महक भी ...

रुक कर ठिठकने  वाला
 ना मंजिल पाता है 
और ना ही फूलों की महक ही ....

किसी को जिन्दगी लहराते -उफनते 
 सागर की तरह लगती  ,तो 
किसी को गहरे सागर की तरह ...

जो डर  जाता है 
सागर की गहराई से 
 खड़ा रहता है किनारे पर ही 
वह डर कर 
ना पार उतरता है ना मोती
 ही पाता है ...
लहराते -उफनते सागर में जो उतरता है 
वह पार भी जाता है , 
मोती भी पाता है ...

Sunday, 19 May 2013

हे सूर्य नारायण ...!


हे सूर्यनारायण ...!
तुम चलते रहते हो 
अथक , अनवरत ...

जैसे एक माँ अपनी संतानों 
पर बिना भेदभाव किये 
ममता लुटा देती है ,
वैसे ही , 
तुम भी तो 
इस धरा के हर प्राणी ,
हर एक भाग  पर ,
अपनी किरणों को लुटा कर 
प्रकाशमान कर  देते हो ...

 हे सूर्यनारायण ...!
मुझे तुम्हारी ये किरणे ,
भोर में नन्हे मासूम शिशु 
जैसी मुस्काती लगती है ...

दोपहर में एक मेहनत -कश ,
इंसान की तरह चमकीली 
और प्रेरणादायक 
लगती है ...

ढलती धूप , जैसे कोई 
प्रियतमा ने अपनी जुल्फें 
बिखरा दी हो और 
उसके साये में जरा 
विश्राम ही मिल जाये...

तुम्हारी सांझ की किरणे ,
अपनी बाहें फैला कर ,
जैसे सारी थकन को दूर 
करती ...

हे सूर्य नारायण ...!
तुम्हारे सातों  घोड़े ,
निरंतर चलायमान 
हो कर ,
सातों दिशाओं के 
प्रहरी बने रहते हैं ,
फिर भी कभी -कभी 
तुम्हारी नज़रों में 
इस जगत के रहने 
वालों के दुःख -संताप 
क्यूँ  नहीं आते ...!

फिर क्यूँ नहीं 
तुम उन दुखों को ,
संतापों को 
अपनी तेज़ किरणों से
 जला कर नष्ट कर  देते ...

( चित्र गूगल से साभार )

Saturday, 18 May 2013

उधेड़-बुन


हर रोज़ एक शब्द
सोचती हूँ
उसे बुन लेती हूँ
बुन कर सोचती हूँ
फिर उधेड़ देती हूँ ...

उधड़े  हुए शब्द
ह्रदय में
एक लकीर सी बनते
तीखी धार की तरह
निकल जाते हैं ...

सोचती हूँ यह शब्दों
का बुनना फिर
उधेड़ देना
यह उधेड़-बुन न जाने
कब तक चलेगी ...

शायद
यह जिन्दगी ही
एक तरह से
उधेड़ -बुन ही तो  है...

(  चित्र गूगल से साभार )

Friday, 17 May 2013

वह उसकी परछाई ही होती है ...


दुनिया में इंसान का 
हर रिश्ता ,
हर एक सम्बन्ध 
भरा  है
स्वार्थ और मतलब से ...

जो साथ रहती है 
एक सच्चे  मित्र की तरह ,
एक वफादार 
जीवन संगिनी की तरह, 
सुबह से लेकर शाम तक
 वह उसकी परछाई ही 
 होती है ...

यह परछाई 
भरी दुपहरी में उसके 
क़दमों तले रह कर भी 
साथ नहीं छोडती
कभी भी ...

गहरी अँधेरी रात में यह परछाई 
उसके अंतर्मन में 
छुप कर उसे सही 
राह भी दिखलाती है ........

Monday, 13 May 2013

चुप सी चल रही थी जिन्दगी ......


चुप सी चल रही थी
जिन्दगी ,
एक ठहरी हुयी सी
नाव की तरह ...
ना सुबह के होने की
थी कोई
उमंग ही ,
 ना ही शाम होने की
ललक ही ,
दिन  चल रहे थे
और रातें  रुकी हुई थी ..

सहसा  ये क्या हुआ ,
मेरे मन में ये कैसी
हिलोर उठी ,
शांत लहरों पर रुकी हुई
नाव की पतवार किसने
थाम ली ...!
क्या यह तुम्हारे आने
का इशारा है ....!


Thursday, 9 May 2013

हम बेटियों का घर ही धूप में क्यूँ ...!



सहसा उसे

 नानी का कथन

 याद आ गया 

"तेरा ससुराल तो

 धूप में ही बाँध देंगे...!"

जब उसने देखा 

दूर रेगिस्तान में

एक अकेला घर 

जिस पर ना कोई साया 

ना ही किसी 

दरख्त की शीतल छाया ,

एक छोटी सी 

आस की बदली को तरसता

वह घर .......!
और उसमे खड़ी एक औरत ...

तो क्या इसकी नानी भी

 यही कहती थी...?

पर नानी मेरा घर ही 

धूप में क्यूँ ,भाई का

क्यूँ नहीं ....!

शरारत तो वो भी करता है ...

इस निरुत्तर प्रश्न का 

जवाब तो उसने

समय से पा लिया

पर आज फिर 

नानी से यही प्रश्न करने को

मन हो आया
"

हम बेटियों का घर ही धूप में क्यूँ ...!


(चित्र गूगल से साभार )

Tuesday, 7 May 2013

जब सारे मोड़ ही मुड़ गए ...



इकरार और इनकार 

के बीच 

एक बार फिर 

से दुविधा ...


काश के तुम 

इकरार करते

तो क्या मैं 

इनकार कर पाती ...


 तुम हाथ बढ़ाते

तो क्या मैं साथ न 

चल पड़ती ...


इकरार किया भी

 तो किस 

मोड़ पर आ कर 

जब सारे मोड़ ही

मुड़ गए ...


जो लम्हे

 जिए थे साथ तुम्हारे 

आँखों से मोती बन कर

बिखरे पड़े है ,

उसी आँगन में ...

काश !

 तुम उन मोतियों

की माला मुझे 

पहनाते.......



Saturday, 4 May 2013

साथ छूट गया बरसों के इंतजार का ........

ख़त्म हुआ इंतजार ...!
एक पत्नी का 
एक बहन का 
और 
बेटियों का भी ...! 

इंतजार था 
एक सुबह वह भी आएगी 
जब सूरज उगेगा 
ऐसा भी ,
लाएगा साथ अपने 
एक ख़ुशी की किरण ...

किरणों पर होगा एक पैगाम 
आने का 
उसका जो , उनका अपना प्रिय है 
आँखों का तारा है ,
चला  आएगा राखी के तारों से बंधा 
अब खत्म हो गया इंतजार 
उन राखियों का भी ...

इंतजार था उसे भी 
उस चंदा का ,
जाने कितने करवा -चौथ के 
चाँद वारे होंगे उसकी चाह में 
अब खत्म हो गया इंतजार
 उस चाँद का भी ,
लील गया उसे भी एक गम का 
घना बादल ...!

बेटियां भी रह गयी 
बस ताकती सूनी राह 
तरसी थी बचपन से ही 
जिसकी बाहों में झूला झूलना ,
अब इंतजार था जिन  बाँहों का 
जो डोली में बैठाती 
ख़त्म हो गया उन बाँहों का इंतजार,
 छूट गया साथ ...

साथ छूट गया एक आस का 
बरसों के इंतजार का ........






Thursday, 2 May 2013

क्यूंकि यही तो जीवन है ...



मेरा जीवन जैसे कोई
जंगल हो पत्थरों का ........
संवेदना ,भावनाओं से परे ,
बेशक बिखरी है आस पास ,
चारों और चमकीली मणियाँ ,
और इन्ही पत्थरों को सर पर
सजा कर अक्सर जीवन की
मुस्कान ढूंढ़ती रहती हूँ  मैं............!
कभी इन बेजान पत्थरों में भी
फूल खिलाने और कभी खिलने
 का इंतज़ार करती रहती हूँ ,
क्यूंकि यही तो जीवन है ...........:)

Wednesday, 1 May 2013

अन्नपूर्णा.....


गहरे सांवले रंग पर

गुलाबी सिंदूर ,

गोल बड़ी बिंदी ...

कहीं से घिसी ,कहीं से

सिली हुई साड़ी पहने

अपनी बेटी के साथ ,

खड़ी कुछ कह रही थी

मेरी नयी काम वाली ..

 मेरी नज़र उस के चेहरे ,
गले और
बाहं पर मार की

ताज़ा -ताज़ा चोट पर

पड़ी 

और दूर तक

भरी गहरी मांग पर भी ...

मैं  पूछ बैठी ,

कितने बच्चे है तुम्हारे ,

सकुचा कर बोली जाने दो

बीबी ...!

क्यूँ ...?

तुम्हारे ही है ...!

या चुराए हुए ,

और तुम्हारा

नाम क्या है ,

बेटी का भी...

वो बोली नहीं -नहीं बीबी ...

चुराऊँगी क्यूँ भला 

पूरे आठ बच्चे है ...!

ये बड़ी है,

सबसे छोटा गोद में है ...

पता नहीं मुझे क्यूँ हंसी

आ गयी 

इसलिए नहीं कि उसके

आठ बच्चे है 

कि

अपने ही बच्चों की भूख

के लिए सुबह से शाम भटकती

"अन्नपूर्णा " और उसकी बेटी

" लक्ष्मी "...!

औरत को गढ़ना पड़ता है ....



औरतें  होती है 
नदिया सी 
 तरल पदार्थ की तरह 
जन्म से ही 
हर सांचे में रम
 जाती है ...

और पुरुष होते है  
पत्थर से 
 ठोस पदार्थ की तरह ,
औरत को  गढ़ना पड़ता है 

छेनी- हथौड़ा ले कर
इनको 
 अपने सांचे के अनुरूप ...

 एक अनगढ़ को 
गढने  की नाकाम 
कोशिशों में ,
ये औरतें सारी उम्र
लहुलुहान करती रहती 
अपनी उँगलियाँ और 
कभी अपनी आत्मा भी ...